भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओलार / संतोष कुमार चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:19, 31 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार =संतोष कुमार चतुर्वेदी }} {{KKCatKavita‎}} <poem> बहुत देर से ज…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत देर से जुटा है इक्कावान
इक्के पर बैठे अपने सवारियों को व्यवस्थित करने की कोशिश में

चार यात्री भारी-भरकम काया-माया वाले आगे
खुद साईस की तरह विराजमान
अपनी गद्दी पर इक्कावान
कुछ दुबले-पतले और दो-तीन मोटे-ताजे
बीच में अड़स कर बैठे कुछ बच्चे और महिलाएँ
इक्के की छाजन का ढांचा बनाने वाले लोहे के छड़ों
और इक्के का वितान रचने वाले पटरों को
अपनी मजबूत पकड़ में जकड़े हुए सब

लगातार चाबुक बरसा रहा है इक्कावान घोड़े पर
पर घोड़ा है कि अड़ा हुआ अपनी जिद पर
एक भी कदम आगे न बढ़ने की कसम खाये हुए
जबकि नधा है वह गाड़ी में जुतने के लिए ही

कुछ न कुछ जोड़-घटाव करते हुए
जैसे अपने-आप से कहता है इक्कावान
लगता है ओलार हो गयी है गाड़ी
और जब भी ऐसा होता है
इक्का पलटने का खतरा होता है

आगे का कुछ पीछे
और पीछे का कुछ आगे कर रहा है इक्कावान
पर संतुलन ही नहीं बन पा रहा किसी भी तरह इक्के का
कोई सूरत नजर नहीं आ रही एक भी डग
आगे बढ़ पाने की

यह कैसा समय है भाई
कि मोटे और मोटाते-अघाते जा रहे हैं
कमजोर पतराते जा रहे हैं दिन-ब-दिन
कुछ बैठे हुए हैं पालथी मार कर
और तमाम के कंधे पीरा रहे हैं
कुछ डूबे हैं वैभव-विलास में आकंठ
जबकि तमाम लोगों के सूखते जा रहे हैं कंठ

एक चक्का सूरज की तरह
दूसरा चक्का फिरकी जइसा
ऐसे कैसे गाड़ी चल पायेगी भइया
इसी तरह सब होता रहा अगर
तब तो दुनिया ही ओलार हो जायेगी एक दिन
जिसका मर्म बूझते-समझते हैं
इक्कावान और घोड़े ही।