भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ किसान ! / शंकरानंद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम नहीं रोपो बीज धरती के गर्भ में
नहीं जोतो खेत
अब मत बहाओ पसीना
ये तुम्हारे दुश्मन हैं
कुछ और सोचो जो तुम्हें ज़िन्दा रहने का मौक़ा देगा
तुम कुछ और करो जो दो वक़्त की रोटी दे तुम्हें
ये लोकतन्त्र है
जिसके सामने रोओगे
वही उठ कर चल देगा
जिससे माँगोगे मदद
वही सादे काग़ज पर अँगूठा लगवा लेगा
तुम जिस पौधे को रोपोगे विदर्भ में
वह दिल्ली में पेड़ बन कर खड़ा मिलेगा
वह सबको छाँह देगा और तुम्हें धूप में जलना पड़ेगा
तुम्हें ध्यान खींचने के लिए
उसी पेड़ की टहनी में फाँसी लगा कर मरना पड़ेगा
भरी सभा में हज़ारों लोगों के बीच
और सब इसे तमाशे की तरह देखेंगे
इसलिए कहता हूँ कि मत रोपो बीज ।