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ओ नारी, समता की सहपाठी हो तुम / पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी

ओ नारी—
समता की सहपाठी हो तुम!
अनेक महान सम्बोधन दिये तुम्हें
पर दिया नहीं
तुम्हें निर्णय का अधिकार
तुम्हें रिश्ते-नातों श्रृंखला से जकड़ा—
शस्त्र और शास्त्र का भय दिखलाकर

जो पाँव तुम्हारे साथ चलने की खाते हैं क़सम
वे ही तुम्हें ठुकराते
जो हाथ तुम्हारा हाथ थामते
वे ही गला दबाते
फिर भी ओ नारी
अनन्त विसंगतियों-विकृतियों के बीच
पत्थर पर उगती—
दूब-सी उगती रही हो तुम!