भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ मृत्यु तुम चली आओ / असंगघोष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ मृत्यु!
तुम चली आओ
दौड़ती हुई
इस सपाट रास्ते पर
मुझसे चंद कदम दूर
उस बरगद के नीचे
जहाँ मुझे सरेआम
अपने पुरखों ही की तरह
प्रताड़ित किया गया
थोड़ा रुको
तुम वहाँ
थक गई होंगी दौड़ते-भागते
फिर मेरी प्रताड़ना का अहसास करो
यदि हो जाए
तुम्हें इसका थोड़ा भी भान
तो
जब चाहो
उसी वेग से
दौड़ती चली आना
मेरे पास

मैं भी तुमसे मिलने का व्याकुल हूँ
लेकिन बरगद तले तुम्हारे रुकने
सदियों से होती आ रही
हमारी लज्जा/प्रताड़ना का
अहसास होने तक
जो भी समय तुम लोगी
वह पर्याप्त होगा मेरे लिए
अपनी लज्जा का प्रतीक
विद्रोह का बीज रोपने के लिए
मैं जानता हूँ
उस बीज को
बरगद से भी बड़ा पेड़ बनने तक
अपनी मेहनत-काबिलियत से
सींचती रहेंगी मेरी पीढ़ियाँ।