भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ मेरे पिता (समर्पण) / एकांत श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:55, 19 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मायावी सरोवर की तरह
अदृश्‍य हो गए पिता
रह गए हम
पानी की खोज में भटकते पक्षी

ओ मेरे आकाश पिता
टूट गए हम
तुम्‍हारी नीलिमा में टँके
झिलमिल तारे

ओ मेरे जंगल पिता
सूख गए हम
तुम्‍हारी हरियाली में बहते
कलकल झरने

ओ मेरे काल पिता
बीत गए तुम
रह गए हम
तुम्‍हारे कैलेण्‍डर की
उदास तारीखें

हम झेलेंगे दुःख
पोंछेंगे आँसू
और तुम्‍हारे रास्‍ते पर चलकर
बनेंगे सरोवर, आकाश, जंगल और काल
ताकि हरी हो घर की एक-एक डाल।