भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ मेरे रसखान / पूनम गुजरानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आंखें गङी रही खिङकी पर
आहट सुनते कान
सम्मोहन ने रास रचाया
ओ मेरे रसखान।

गठरी खुली हुई खुशबू की
शीतल मन्द चली पुरवाई
नैनों में बासंती सपने
गोरी मन्द-मन्द मुस्काई
लिखें धरा पर किसने बोलो
प्रेम भरे आख्यान
ओ मेरे रसखान

फागुन की पदचाप सुनी तो
बुलबुल गाये गीत रेशमी
तन मन है केसर की बगिया
इन्द्रधनुष हो गई है ज़मीं
झर झर मोती झरती कलियाँ
सपन चढ़े परवान
ओ मेरे रसखान।

कलियाँ चटकें भोंरे भटकें
लय गति यति रति बिंब बिखेरे
मधुर कल्पनाओं की घाटी
सत्यम शिवम्-सा चित्र उकेरे
टेर सुनाता कागा देखो
रखना उसका मान
ओ मेरे रसखान।