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ओ रे, सावन इस बार जरा जल्दी आना! / प्रतिभा सक्सेना

 
आ रही याद जाने कितनी उस आँगन की,
क्या पता कहीं कुछ शेष रह गई हो डोरी .
अब नए रंग में रँगे हुए अपने घर की,
उन कमरों की जिनमें अबाध गति थी मेरी,

अपनी आँखों से एक बार जाकर देखूँ
अनुमानों से संभव न रहा अब बहलाना!

शायद कोई भूले-भटके ही आ जाए
आपा-धापी में स्नेहिल नाते रीत गए
जो बिखर गए टूटी माला के मनकों से,
उनको समेटने दिन कब के बीत गए .

इस बार बुलाने को खत ही काफ़ी होगा,
मुश्किल लगता है पूरा बरस बिता पाना!
ओ रे, सावन इस बार जरा जल्दी आना!