भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

औकात / नरेश सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे पत्थरों को पहनाते हैं लंगोट
पौधों को
चुनरी और घाघरा पहनाते हैं

वनों, पर्वतों और आकाश की
नग्नता से होकर आक्रांत
तरह-तरह से
अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं

देवी-देवताओं को
पहनाते हैं आभूषण
और फिर उनके मन्दिरों का
उद्धार करके
उन्हें वातानुकूलित करवाते हैं

इस तरह वे
ईश्वर को
उसकी औकात बताते हैं ।