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औजी - एक उपेक्षित समाज / सुन्दर नौटियाल

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मंगतु का मुखड़ा तबारि फूल जैसा खिल गया
ठुला सेठु की बराति का कार्ड जो उसको मिल गया ।
ऐंच बिटी मुबैल कु घंडोलु बि घमणा गया
देरादून बिटी ठुलु सेठ न्यूता बि सुणा गया ।
छै गते बैसाख मंगतु बराति कु दीन है
अर त्वै बिगर बरात हमारी राग रंग विहीन है ।
सब बराति कैंसील करी, त्वै देरादून आना होगा,
मनु-भजणु, जौ जड्यानी कोई न बहाना होगा ।
पुराणी गैकी कु वास्तु त्वै थैं नाक मेरी तेरा हात
पांच गती सुबेर पौंछी, अरे द्वी दिनों की हीछ बात ।
आण-जाण, पेण-खाण, सब व्यवस्ता मेरी छ
ढोल-नंगारू, रणसिंग-मस्की बाकी व्यवस्ता तेरी छ ।
एकसारू सेठ बोल्दी रै, मंगतु घिच्चु बि न खोली सकी
अपड़ी विपदा, व्यस्तता, सेठ मा न बोली सकी ।
इतक्या जोर कना छ त बराति मा औणु पड़लु
तुमु जना गैकू खातिर जुगाड़ कुछ लगौणु पड़लु ।
चार गती बैसाख मंगतु कु बेंडी कु कोट धुयेग्ये
सुलार-कुर्ता हंकीरू करी धाड़ी-मोछ बणीग्ये ।
चैतु की नंगारू होलु, मैमा रणसिंग्या होलु
बैसाकु कि छमछमी होली, कातकु मसक्या होलु ।
पांच गती सुबेर बुलेरो मोर अग्वाड़ी लगीग्ये
सीट अड़ोक्णा टीम मंगतु सड़की मा भगीग्ये ।
ढोल नंगारू, मस्की-रणसिंगु पिछाड़ी सीट में डाळके
फरंट खिड़की पे बैठा मंगतु मुंडी भैर निकाळ के ।
तब्बि ठाकुरों के चार छोरे बीच सड़की में आके
सीट खोजणे लग गये गाड़ी को रूका के ।
बाजगी पीछे चलो जी, आगे की सीट हमारी है
गाड़ी बि हमारी है अर सादी बि हमारी है ।
दमा का मरीच हूँ मंगतु बोल्दा रै गया
सीट छुड़ाके बि राजू बात कतक्या कै गया ।
आज सीट मार रहे हो, भोळ चुल्ली बि हत्याओगे
खोपड़ी पे हमारी चढ़के, स्वांळे-पकोड़े खाओगे ।
भाव भौत चड़ गये बकिबात न करो तुम,
आंगळी क्य पकड़ाई तुमको खोपड़ी पे न चड़ो तुम ।
हात जोड़ी भारी मन से मंगतु पीछे हो गया
नाती की उमर के छोरे समणि मुंड नीचे हो गया ।
सारे रस्ते दमावाळा मंगतु खुंगता-खांस्ता रहा,
ठाकरों का छोरा सारे रस्ते कुढ़न बांचता रहा ।
अति हो गयी बात बात पर जब छोरा कोसने लगा
कानु आंगुळि कोच मंगतु, मन में सोचने लगा ।
भले भले लोग होंगेे, भला-भला समाज होगा
गौं में तो पुराणी हि टेरड़ शैरू का नया रिवाज होगा ।
देरादूण वाळों की छ्वीं बात हौर होगी
रूढ़ीवादी सोच से कुछ तो बात हौर होगी ।
रींग उल्टि करते-करते मंगतु पौंछा देरादून
बड़े लोगों के बीच पौंछके आया थोड़ा सा सुकून ।
बड़े से ग्रौंड में बड़ी सी कनात थी
सूट बूट टाई वाळे लोगों की जमात थी ।
खुश्बुदार सैंट वाळे चमकदार कोट पैंट वाळे
मैंगी-मैंगी गाड़ी, साब देखे गोरे काळे ।
चाट चैमीन फ्रूट सलाद चखणा रसमलै कु स्वाद
मेस्सी रोटी तंदूरी मुर्गा, चाय काॅफी स्नैक्स क बाद ।
छोटा-छोटा केबिन बण्यां चार कुर्सी गोल मेज
बोतल तो मिल गयी वेटर कुछ ठुंगार भेज ।
बणोदार को, बांटदार को, कुजाण कखकु क्या छ जात
बर्मा शर्मा कट्ठि खाणा, क्वै नि पुछणु जात-पात ।
मंगतु का रिंगता मैंड थोड़ा हौर रिंग गया
थोळी घिची लाळों से भरगी, मौज है आज भिंग गया ।
ठुलु सेट दौड़दु भगदु आया मंगतु के पास,
तु जरूर पौंछेगा मुझको पूरा था विश्वास ।
एक केबीन में बैठ जाओ बोतल पकड़ो अपणे पास
ठंुगार जुकुछ चहिए लेना तुम भी हो मेरे ही खास ।
डोंगा सिस्टम खाणे का है जनी मर्जी खै करी
खड़ा होणा कि बी जर्रत नीछ यखि मा मंगै करी।
सारा बाटा की टैंशन मंगतु एक झटके में भूल गया
ठुला सेठ की बातौं के झिंडा में स्यां करके झूल गया ।
येसे होते बड़े लोग बैशाखू से बोला वो
ओल्ड मोंक हुसकी का ढक्कन ठक्क करके खोला वो ।
तीन पैग भितर करके मंगतु बोलने लगा
मन की गिड़ाट टीम समणि मंगतु खोलने लगा ।
द्वी कौड़ी के गंवार छोरे इज्जत नी चिताते हैं
देरादून वाळे ठुले सेठ भी कन प्यार से बच्याते हैं ।
भले-भले लोग हैं यख भला-भला समाज है
तौ-तमीज बातौं की स्वाणा सा मिजाज है ।
देरादून वाळों की बात कुछ हौर है
गौं के गैक ब्लाडी फूल जानवर हैं ढोर हैं ।
खाणा पीणा खाके मजे से मंगतु फुल्ल हो गया
हुस्की की खुमारी चढ़गी मंगतु टुल्ल हो गया ।
डीजे के डिमकोट में ज्वान नाचणे लगे
अपणी-अपणी फरमैश के परचे बांचणे लगे ।
एक घीत पुरयाता नी कि हैंका घीत बज जाता
जौनसारी, गडवाली, अंग्रेजी, पंजाबी भंगड़ा लग जाता ।
तबी ठुला सेठ पौंछा लेके बोतल हात में
बर्मा, शर्मा, भारती, सारथी, मिश्रा जी के सात में ।
जैन्टलमैन आज हम रांसू खूब लगायेंगे
गौं के औजी बुलाये मैंने, मंडाण खूब लगायेंगे ।
हमारे पाले-पोसे हैं हमारे ही टुकड़ों पे पलते हैं
गौं में इन बाजगियों के चुल्हे हमसे से जलते हैं ।
हमारी एक काॅल पे ये कहीं भी पौंछ जाते हैं
हम जैसे गाहकों से ही तो मांग-मांग खाते हैं ।
हम ऊंची जात वाले ये हमारे पैरों के जूते हैं,
आज भी ये हमारे चैका-चुल्हा कहां छूते हैं ।
डेळी भितर हमारी आज बी पैर नहीं धर सकें
चाये कुछ बि बोलें इनको ये बैर नहीं कर सके ।
चल बे मंगतु औजी, अब ढोल पर तु थाप दे
मेरा मैमानु का दिलमा मंगतु पाडै़ संस्कृति छाप दे ।
रूंदाण्या गळे से मंगतु जागर-घीत लगाता है
समाज जख का तख है, मन ही मन डुड्याता है ।
लोग बड़े हो गये खूब पैसा ह्वै गया
पर शैरू में बि पहाडू़ का मनखि जैसा का तैसा रै गया ।
मनखि बड़े हो गये पर सोच अब बि छोटी है
ऊंच-नीच, भेदभाव की नीति कितनी खोटी है ।
पढ़े-लिखे सभ्य हो ग्ये सोच भी बड़ाओ जी
दुनियां से मनखि-मनखि के भेद को मिटाओ जी ।
मंगतु जैसे औजियों का बि मान-समान होता जी
उनको बि दर्द होता है उनका दिल बि रोता जी ।
कर्मों से हो बड़ा-छोटा, जन्म से न भेद होये
आने वाले वक्त में कोई बि मंगतु न रोये ।।