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औपचारिकता / सपना भट्ट

घाट पर
एकत्रित हैं कुल जमा ग्यारह लोग
रंगीन साड़ी में लिपटी है एक लाश
माथे तक सिंदूर रचाए
कलाइयों में चिट्ट लाल चूड़ियाँ सजाए।

मैं उसे जानती हूँ
अक्सर देखा है उसे धारे पर गागर भरते
घास काटते, लकड़ियाँ ढोते
उसकी एक बच्ची मेरे स्कूल की तीसरी कक्षा में पढ़ती है।

देखती हूँ कि
उसकी आँखों में पथराया हुआ हैं
तुलसी का चौरा
आंगन में खेलते नौनिहाल
और माँ बाप का उदास राह तकता चेहरा।

बरखा आने को है
नदी का उफ़ान कलेजा कंपाता है।
पति अनमना होकर अपने पिता को देखता है
पिता गूढ़ दृष्टि से पंडित जी को।

पंडित जी सब समझते हैं
उनकी आंखों ने कई मातम देखें हैं
वे एक झलक में समझ जाते हैं
किस नज़र का क्या अर्थ है।

जल्दी जल्दी तीन मंत्रों में
करते हैं आख़िरी रस्म पूरी...
अगले ही क्षण फूटती है मटकी
चिता की लपट में धूँ-धूँ जल उठती है
लछमा की कृशकाय देह।

वर्षा शुरू होने से पहले
क्रियाकर्म की औपचारिकता निपटा कर
सब अपने-अपने घर लौट रहे हैं।

मैं उफनती 'जलकुर' किनारे अवाक बैठी
ईश्वर से मनाती हूँ
कि काश!
इसकी देह के राख होने तक वर्षा न हो।

तभी प्रधान जी की आवाज़ सुनती हूँ
कि आप यहाँ क्या कर रही हैं बहन जी?
जानती नहीं कि औरतों का
मृतक घाट पर प्रवेश वर्जित है।
"औरतें यहाँ जीते जी नहीं आ सकतीं"

यह सुन कर मन पिराता है और
मैं लछमा का आधा जला शव छोड़कर
घर को चल देती हूँ।

जीवन इतना ही भंगुर है
इतना ही अनिश्चित और क्रूर भी।
मन में असीम दुःख लिए सोचती हूँ कि
क्या राम नाम सच में सत्य है?