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औपचारिक भंगिमा कृत्रिम हँसी निष्प्रभ नमन / शिव ओम अम्बर

औपचारिक भंगिमा कृत्रिम हँसी निष्प्रभ नमन,
इस नगर में हर नज़र में आ बसे हैं शूलवन।

उस दरीचे से कभी चिट्ठी गिरी थी धूप की,
उस दरीचे की तरफ़ आँखें उठेंगी आदतन।

हाँ, सुसंस्कृत हो गये हैं लोग मेरे गाँव के,
अब उन्हें विचलित नहीं करता किसी का भी रुदन।

भाग्य भी हमको मिला शिव का महज संज्ञा नहीं,
उम्र भर करना पड़ा फिर फिर गरल का आचमन।

क्रुद्ध झंझावत, उल्कापात, वज्राघात सह,
मुस्कराता ही रहा ये शब्द का संस्कृति सदन।

हो गये निर्वाक् आ कर सत्य की देहरी पे हम,
खो गये पूजन-भजन-याजन-यजन-चिन्तन-मनन।