Last modified on 31 मई 2009, at 04:42

औरतें काम करती हैं / शुभा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:42, 31 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शुभा |संग्रह=}} <Poem> चित्रकारों, राजनीतिज्ञों, दार...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चित्रकारों, राजनीतिज्ञों, दार्शनिकों की
दुनिया के बाहर
मालिकों की दुनिया के बाहर
पिताओं की दुनिया के बाहर
औरतें बहुत से काम करती हैं

वे बच्चे को बैल जैसा बलिष्ठ
नौजवान बना देती हैं
आटे को रोटी में
कपड़े को पोशाक में
और धागे को कपड़े में बदल देती हैं।

वे खंडहरों को
घरों में बदल देती हैं
और घरों को कुएँ में
वे काले चूल्हे मिट्टी से चमका देती हैं
और तमाम चीज़ें सँवार देती हैं

वे बोलती हैं
और कई अंधविश्वासों को जन्म देती हैं
कथाएँ और लोकगीत रचती हैं

बाहर की दुनिया के आदमी को देखते ही
औरतें ख़ामोश हो जाती हैं।