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औरतें - 2 / ज्योति रीता

औरतें
जिम्मेदारियों के बोझ तले
अपनी चाहतों को
कपड़े की अलमारी में
कहीं दबा देती है

वर्षों बाद समय-समय पर
निकाल कर धूप लगा देती है

महक हट जाने पर
गरमागरम ही तहियाकर
फिर ठिकाने लगा देती है

भूलती नहीं रखना
नेप्थलीन की एकाध गोलियाँ

बदबू जाती रहे
महक आती रहे

कभी-कभार कामों से निवृत्ति पाकर
सांझ को दिखाती है दीये

फिर बुद्बुदाकर परे रख
जाती है रसोई में

और पकाती है
नर्म-मुलायम-गोल रोटियाँ॥