भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

औरतें / नील कमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये अपने सुहाग को
मृत-शिशु-सी चिपकाए रहती हैं
छाती पर,

इनकी छातियाँ बोझ उठाते हुए
थक कर झूल जाती हैं पसलियों से,

इनके जिस्म
खेतों से पसरे रहते हैं
जिनपर कोई विजेता
अपनी फतह का झण्डा गाड़ देता है,

यें खूँटो पर गायों-सी बँधी
जुगाली करती हैं
इनकी जुगालियों में
बाबुल की यादें ठहरी होती है,

ये बहुत गुस्से में जब
झगड़ती हैं आपस में
तो पूत-भतार तक खा जाती हैं
जैसे पान के बीड़े चबाती हों,

ये हमारी औरतें हैं
जो वक़्त से पहले ही
बूढ़ी हो जाती हैं,

अच्छे समय का इंतज़ार करते
झाँइयों से घिरे,
इनकी आँखो के कटोरे
गहरे हो जाते हैं,

फिर भी सिंदूर दमकता है
इनके माथों पर

इनकी माँग -- जैसे पत्थर की लकीर
इनका सुहाग -- जैसे क्यारी में
रोप दिया गया कोई बेअदब फूल,

इनके नाक-कान छिदे रहते हैं
जिनमें दहेज में आई मुंदरी
या सोने-चांदी के फूल
किसी सपने की तरह चिपके होते हैं
इनके आख़िरी वक़्त तक,

बाकी जेवर तो गर्दन-बाजू-कमर
और पाँवों से उतर ही जाते हैं
घर-गिरस्थी की आबरू बचाते,

कुल के एक चिराग की बाट जोहते
ये छह-सात बेटियाँ
जन चुकी होती हैं जब
नज़दीकी स्वास्थ्य-केन्द्र से
रक्ताल्पता की इन मरीज़ों को
गोलियों के साथ दूध-दही-फल
और ताजी सब्जियाँ खाने की सलाह
दी जा चुकी होती है,

सवाल फिर वही
कैसे आएगा -- कहाँ से आएगा

नइहर-सासुर के दो छोरों के बीच
सिमटी दुनिया में
ये लम्बे समय से बिछुड़ी
सखियों-सहेलियों से मिलती हैं कभी
तो भेंटती हैं विलापते हुए
और गाती रहती हैं
व्यर्थ गई जिनगी की व्यथा-कथा

और क्या कहूँ
कि इस कथा में शरीक थीं
मेरे घर की औरतें भी

और फिलहाल
सिवाय हमदर्दी के
मेरे पास
इनके लिए कुछ और नहीं,

लेकिन ये मेरा यक़ीन करें तो
इन्हें बताना चाहूँगा
कि दुनिया जिस दिन
मेरे जैसे हमदर्दों के
एक इशारे पर बदल जाएगी
मैं इन्हें आदम के उस बगीचे में
छोड़ आऊँगा
फिर से नई दुनिया शुरू करने के लिए ।