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"औरत-१-अवकाश के दिन / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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वह अकेली नहीं है  
 
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देखते हुए दिवास्वप्न  
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मेहनत से निजात का,
 
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पर, वह युगों दूर है  
 
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वह पूरी धोबन बनती है  
 
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इसी दिन,  
 
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कुशल रसोइयां, मेहनतकश महरी बनती है  
 
इसी दिन,
 
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इसी दिन, वह सास-ससुर
 
इसी दिन, वह सास-ससुर
 
जेठ-जेठानियों के सामने  
 
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लगाती है अपने  
 
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पति की नज़रें तौलती हैं उसे  
 
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एक सम्पूर्ण गृहस्थन के रूप में  
 
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पति की नज़रों में  
 
पति की नज़रों में  
 
बनी-ठनी रहने के लिए  
 
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सप्ताह-भर  
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उसे खरा उतरना होता है  
 
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अप्सरा बनकर,
 
अप्सरा बनकर,
परिवार में अपनी झकडा जड़ें  
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झकड़ी-तगड़ी बनानी होती है
 
झकड़ी-तगड़ी बनानी होती है
ममता की वेदी पर चढ़ कर,
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ममता की वेदी पर चढ़कर
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आज बहुत-कुछ बनने का  
 
आज बहुत-कुछ बनने का  
साप्ताहिक पर्व है उसका
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वह इसे भरसक मनाएगी आज  
 
वह इसे भरसक मनाएगी आज  
 
और मनाती जाएगी पूरे साल  
 
और मनाती जाएगी पूरे साल  
 
कम से कम बावन बार.
 
कम से कम बावन बार.

14:56, 22 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

औरत-अवकाश के दिन
 
वह अकेली नहीं है
सारा परिवार है
उसके साथ,
संजोए हुए आंखों में अवकाश,
देखते हुए दिवास्वप्न--
मेहनत से निजात का,
पर, वह युगों दूर है
अवकाश से

श्रमशीलता ही उसका अवकाश है
जो ऐन रविवार
होता है पुरजोर

वह पूरी धोबन बनती है
इसी दिन,
कुशल रसोइयां, मेहनतकश महरी बनती है
इसी दिन,
इसी दिन, वह सास-ससुर
जेठ-जेठानियों के सामने
लगाती है अपने
सेवा-भाव की प्रदर्शनी,
पति की नज़रें तौलती हैं उसे
एक सम्पूर्ण गृहस्थन के रूप में

पति की नज़रों में
बनी-ठनी रहने के लिए
सप्ताह-भर--
उसे खरा उतरना होता है
अप्सरा बनकर,
परिवार में अपनी झकड़ा जड़ें
झकड़ी-तगड़ी बनानी होती है
ममता की वेदी पर चढ़कर

आज बहुत-कुछ बनने का
साप्ताहिक पर्व है उसका,
वह इसे भरसक मनाएगी आज
और मनाती जाएगी पूरे साल
कम से कम बावन बार.