भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

औरत में पहाड़ / स्वाति मेलकानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोज सुबह
     जब मैं आँखें खोलती हूँ
     तो खाली कमरे में बिखरी धुंध
     भर जाती है मेरे भीतर।
     दिन भर के कामों के बीच
     जारी रहता है धुंध का भरना
     और
     शाम होने तक
     तुम्हारी यादों का
     पूरा पहाड़ खड़ा हो जाता है।
     इस पहाड़ पर पीठ टिकाए
     मैं देखती हूँ आसमान
     और तुम तारों में चमकते हो।
     रात भर तुम्हारी यादों के पहाड़
     पिघलते हैं मेरे भीतर
     और सुबह
     बगीचे में उगी
     हरी घास से लेकर
मेरे सिरहाने तक
     ओस की सैकड़ों बूँदें बिखर जाती हैं।