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{{KKRachna<br />
|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव <br />
|संग्रह= <br />
}} <br />
{{KKCatKavita}}<br />
<poem><br />
'''औरत-२ त्योहार के दिन''' <br />
<br />
वह बनाती है <br />
त्योहार को त्योहार,<br />
बच्चे उसे रसोई से ओसारे<br />
बैठक से जीने <br />
शौचालय से गुशलखाने <br />
भोजनकक्ष से आंगन तक <br />
एक ही समय में मौज़ूद पाकर <br />
किलकते हैं,<br />
त्योहार में शरीक़ होने का <br />
वाक़ई लुत्फ़ लेते हैं,<br />
अंगडाइयों से जम्हाइयों तक <br />
उसे गुहार-मनुहार <br />
अपने पास पाते हैं <br />
<br />
अन्यथा, वे चिचियाते हैं <br />
रुदन करते हैं <br />
हुल्लड मचाते हैं,<br />
'पहले हम', 'पहले हम' <br />
घिघियाते हैं,<br />
रिरियाते हैं <br />
और चकरघिन्नी मां <br />
नाचती है उनके आस-पास <br />
सुबह से रात <br />
<br />
पति की भृकुटियों से <br />
जुडा हुआ है <br />
उसकी सक्रियता का तार <br />
और वह--<br />
चुस्कियां लेते अखबार पढते <br />
राजनीतिक लफ़्फ़ाज़ी करते <br />
अपने महापुरुष से<br />
भींगी बिल्ली सरीखी <br />
कातर याचना करती है--<br />
'आप निपट लें, नहा लें <br />
कपडे-वपडे बदल लें <br />
तो तो मुझे कुछ फ़ुरसत '<br />
पर, वह आग बन<br />
ऐसे भडक उठता है <br />
कि उसकी आंच से <br />
वह पसीने-पसीने हो जाती है<br />
<br />
खैर, यह तो रोज़मर्रा है<br />
वह बुरा नहीं मानती है<br />
क्योंकि आज त्योहार है,<br />
उसे सभी का मूड बनाए रखना है <br />
अरे हां! आशीष-बख्शीश के लिए <br />
पूरे दिन खटना-मरना है<br />
सुर कतई नहीं भूलना है <br />
कि आज <br />
पूरे घर का त्योहार है<br />
<br />
कोई बात नहीं <br />
फ़ुरसत मिलने पर <br />
वह शाम को ही नहा लेगी <br />
कपडे बदलकर त्योहार मना लेगी <br />
<br />
पर, आज वह ठीक दस बजे रात<br />
ज़िम्मेदारियों से पाकर निज़ात <br />
ड्योढी पर खडी <br />
शायद!<br />
पछता रही है--<br />
कि उसमे क्या कमी रह गयी <br />
कि उसका परिवार <br />
मजे से मना न पाया त्योहार <br />
<br />
हां, वह<br />
पछता-पछता पछता रही है,<br />
त्योहार की धमाचौकडी से थाके-मांदे <br />
नाक बजा रहे हैं--<br />
उसके आदमी और बच्चे,<br />
वह उनके कदमों तले <br />
सोना चाह रही है,<br />
बेशक! वह सिसक-सुबक नहीं रही है <br />
पर, इस पर्व की स्मृतियां <br />
अगले साल के लिए सहेज रही है <br />
और खुश होकर<br />
फुलझडी हो रही है <br />
मन ही मन<br />
बीते त्योहार का <br />
स्वाद चख रही है।</div>Dr. Manoj Srivastav