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और कसो तार / जानकीवल्लभ शास्त्री

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और कसो तार, तार सप्तक मैं गाऊँ।

ऐसी ठोकर दो मिजराब की अदा से
गूँज उठे सन्नाटा सुरों की सबा से
ठण्डे साँचों में मैं ज्वाल ढाल पाऊँ।

खूँटियाँ न तड़कें अब मीड़ों में ऐठूँ
मंज़िल नियराय, जब पांव तोड़ बैठूँ
मून्दी-मून्दी रातों को धूप में उगाऊँ।

नभ बाहर-भीतर के द्वन्द्वों का मारा,
चिपकाए शनि चेहरे पे मंगलतारा।
क्या बरसा ? मरती धरती निहार आऊँ।

ढीले सम्बन्धों को आपस में कस दूँ,
सूखे तर्कों को मैं श्रद्धा का रस दूँ
पथरीले पन्थों पर दूब मैं उगाऊँ।