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और भी ग़म हैं.. / राजीव रंजन प्रसाद

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भेड़ बिके, बकरी बिकी
बिके बैल और खच्चर
कुत्ते-बिल्ली, तोता-मैना
सजते हैं बाज़ार, बोलिए ऊँची बोली
ईमानों से बिक जाते बेजान जानवर..

भूखे गाते भजन तुम्हारा
गोपाला आँखों में पत्थर
दिल में सागर भर ले आया
रुपये पाँच सौ
अनजन्में उसके बच्चे का
इससे बेहतर दाम नहीं था।

सुखिया की आँखों का नूरा
नाम रंग दोनों का भूरा
उम्र पाँच के पार हुआ है
पेट ज़रा बाहर है लेकिन
है तो पट्ठा...
रुपये हजार, मुँह पे मार
ले जाता वह साहूकार
बार -बार यूं देख रहा है
जैसे महँगी हुई खरीद।

अभी कली थी रामकली
दस वसंत भी नहीं खिली
एक दिन मामा से बोली
मैने रेल नहीं देखी
फिर क्या था छुक-छुक करती
दिल्ली की बदनाम गली
पहुँचा कर वह मुस्काया
सौ के पंद्रह नोट..
एक महीने की दारू का
यह जुगाड़ था।

दो हजार की उँची बोली
सुन रज़िया नें आँखें खोली
उसकी इतनी ऊँची कीमत?
एक साथ इतने पैसे के
सपने भी उसने ना देखे
भूखी चुभती अंतडियों से
बेहतर नाखूनों के ज़ख्म..
खून के आँसू किसने देखे?

ज्यादा पीडा, बेहतर बोली
यह दौर आर्थिक क्रांति का है
और यह जो खबरें सुनता हूँ
कि करोडों में खरीदे गये क्रिकेटर
तो सोचता हूँ
कितनी बौनी है मेरी अक्ल!!!!
.....
और भी ग़म हैं ज़माने में..

23.02.2008