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और भी है घास / योगेंद्र कृष्णा

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और भी है घास
जो उग आती है
खेतों में धान के बहुत पास
और जो फिर भी है
आदमी के मन से उतनी ही दूर
जितना कि उसका आकाश

गंदे नालों के किनारे
अपने मन से उग आई घास
नहीं है फिर भी उतनी उदास
इसलिए शायद
कि वह है अपनी स्वायत्तता के बहुत पास
 
दिखती है जितनी हरी लान की घास
हरीतिमा से है उतनी ही दूर
मशीन उसकी हजामत बनाती है
आदमी की सभ्यता और सौन्दर्य-बोध का पाठ
उसे हर रोज पढ़ाती है

काश! वह उगती और फैलती
बराबर अपनी ही तरह से
लान की घास
जिसे हम
उसकी अपनी मिट्टी में
फैलने पसरने नहीं देते

आदमी के महानागर सोच से
कितनी दूर है
उसे अपने भीतर
उगने-पसरने देने की बात

जिसमें आधुनिक सभ्यता
और आदमी के सौन्दर्य-बोध का
न कोई तुक है
और न कोई अनुप्रास

(प्रयाग शुक्ल की कविता
एक शाम जब मन हुआ घास पर कविता लिखने का
के विशेष संदर्भ में )