Last modified on 24 मई 2012, at 22:56

औसत अँधेरे से सुलह / मनोज कुमार झा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:56, 24 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज कुमार झा }} {{KKCatKavita‎}} <poem> पग-प्रहा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पग-प्रहार से नहीं फूलते अशोक
   सरल कहा ज्यों पत्नी चुनकर फेंकती है धनिए की सूखी पत्तियाँ
समय वहाँ भी झाड़ते हैं पंख जहाँ जल का हो रहा होता है देह
   सभय झाँकती बच्ची नहानघर में
      कि यात्रा की आँख में तो नहीं पड़े कीचक के केश -
कहते उतर गई उस धुआँते निर्जन में और समेट ले गई अँधियारे का सारा परिमल
शेष पंखड़ियाँ काग़ज़ी कुतर रहे थे झींगुर ।

बाहर वन की सहस्रबाहु सहस्रशीर्ष
      नृत्यलीन बली देह
      सधन तम को मथ रही थी
      व्योम शिल्पित, धरा शब्दित ।
मैंने आँखें मूँद ली
लथित पतित औसत अँधेरे के कुएँ में
   नींद मरियल फटी-मैली की जुगत में
जैसी-तैसी सुबह में फिर खोई भेड़ें ढ़ूँढ़नी थीं।