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कँटीला-कटु सत्य / कविता भट्ट

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आग से कौंधती गर्म भट्टी में
कभी पत्थर तो कभी मिट्टी में
रक्त-पसीना होता पानी-पानी
तप्त आग-सी कौंधती जवानी

हो जलती गर्मी या नम बरसात
कर्कश सर्दी या स्निग्ध मधुमात
हर नया पुराना मौसम दे जाता
दग्ध-करुण कहानी झुलसाता

अधखुले-अधफटे चीथड़ों से
अधढका हुआ तन उसका
भटकाव भरे घने बीहड़ों से
भटका हुआ पीड़ित मन उसका

नित चौका-चूल्हा, बर्तन और सफाई
कभी स्वयं के घर और कभी पराई
भूखी कभी चाटती जूठन भरी पत्तल
हाय रे हाय ! प्रकृति तेरा यह छल

ओह! मानव के द्वारा इतना शोषण मानव का
और यह कटुसत्य कँटीला इस निर्मम जीवन का।