भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कई घरों को निगलने के बाद आती है / मुनव्वर राना" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | |||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
पंक्ति 5: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=फिर कबीर / मुनव्वर राना ; बदन सराय / मुनव्वर राना | |संग्रह=फिर कबीर / मुनव्वर राना ; बदन सराय / मुनव्वर राना | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
कई घरों को निगलने के बाद आती है | कई घरों को निगलने के बाद आती है |
21:15, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है
न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है
नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है
वो नींद जो तेरी पलकों के ख़्वाब बुनती है
यहाँ तो धूप निकलने के बाद आती है
ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें<ref>फ़क़ीरों का आश्रम, </ref> हैं
कलन्दरी<ref>फक्कड़पन</ref> यहाँ पलने के बाद आती है
गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है
शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ<ref>पतझड़</ref> तो फूलने-फलने के बाद आती है
शब्दार्थ
<references/>