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कई बानक आदमी के लिए थकने को / कुमार रवींद्र

और अब फिर
महानगरी में
आ गए हैं हम भटकने को

रहे थे कुछ दिन
पहाड़ों के सिरे पर हम अकेले
वहाँ देखे चीड़-वन में थे
हवा के कई खेले

दिखा था
वह हिमशिखर भी
सूर्य जाता जहाँ ढलने को

वहाँ जाकर
हो गईं थीं लोप चिंताएँ हमारी
उम्र बीती थी शहर में
इधर पीते नीर खारी

कई बानक हैं
यहाँ पर
आदमी के लिए थकने को

वहाँ था पुरखों-रची
पगडंडियों का सगा अपनापन
यहाँ हैं मीनार-ओ-गुंबद
और सड़कों में भटकता मन

और हैं
नकली मसीहे
हर किसिम से हमें छलने को