Last modified on 27 अक्टूबर 2009, at 12:36

ककहरा / कुमार अजय

याद है तुम्हें ?
आग उगलती लू
और चमकती धूप में
पसीने में तर
जेठ की मंझ दुपहरी में
समूची दुनिया से
गिनती के क्षण चुराकर
जिंदगी की पाटी पर
हमने मिलकर लिखा था
प्रीत का ककहरा।

उस दिन से
उस धूप-छाँह को
निगाहों में थामे
तुम्हारे इन्तज़ार में बेठा हूँ।

यदि अब भी
चुरा सको
एक-आध क्षण तो
दुहरा जाओ
उस पाठ को।


मूल राजस्थानी से अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा