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कछुओं के अण्डे / लीलाधर मंडलोई

नहीं आएगी कोई चिट्ठी
कोई कुशल क्षेम, कोई समाचार नहीं आएगा

नहीं उड़ पाएंगे हरकारे कबूतर
न गूंजेगी कोयल की आवाज वसंत में

उड़ जाएगा मछलियों का इन्‍द्रधनुषी रंग
नीले पड़ जाएंगे कछुओं के अंडे

सगुन-अपशगुन पर टिकी इस दुनिया में
दौड़ेंगी प्रेत छायाएं और चीखें विलाप भरी

नींद में सुनाई दे जाए चिर-परिचित हंसी, सिसकी या चीख
भरोसा करना कि अटकी है सांसों की डोर

कि शायद बचा हो कुछ बावजूद समापन दृश्‍य के