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कथा यात्रा-3 / आभा पूर्वे

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हे माँ गंगे
तुम्हें सब कुछ स्मरण होगा
तुम यह भी नहीं भूल पाई होगी
कि पालवंश का अन्तिम राजा
इन्द्रद्युमन की पटरानी
अपनी पुष्करिणी के बीच
स्वर्ण कमल पर स्नान करती थी
और एक दिन ऐसा हुआ कि
स्नान के समय भी
स्थिर रहने वाले
स्वर्ण कमल की पंखुड़ियाँ हिल पड़ीं
अशुभ होने की शंका हुई
और सचमुच में शंका साथ हुई
इन्द्रद्युम्न पटरानी सहित
अपने राज्य को छोड़ आगे
यह कथा भी
क्यूल नदी की जलधारा के साथ ही
तुम्हारी लहरों में
मिलती रहती है
जब क्यूल नदी भी
चलते-चलते
थकी-हारी
सूर्यगढ़ा में आकर
तुममें समा जाती है ।

गंगा
यह नाम लेते ही
सारी देह
श्वेत शिला खण्ड-सी
चमक उठती है
और रोम-रोम
तुलसी मंजरी की तरह
महक उठते हैं
एक अजीब पतिव्रता लिए ।

मन
आरती पर रखे
अकम्पित
दीये की तरह
रोशनी देने लगता है,
कामनाओं का अन्धेरा
न जाने कहाँ
कब छोड़ देता है शरीर
और शेष रहता है
कपूर की गेध से सना
कोई अलौकिक प्रकाश ।

गंगा
धरती पर सुधा है
मानव की मुक्ति है
स्वर्ग की दीप्ति है
भारत का रूप है
जाड़े की धूप है
भारतवासियों की
माता है ।
गंगा का अर्थ
किसी व्याकरण में नहीं
किसी शब्दकोष में नहीं
वह जो वहाँ अर्थ है
वह किसी नदी का है
गंगा का नहीं ।

गंगा तो
समाधि में
जागनेवाली शक्ति है
ऋषि की
दिव्य भक्ति है
यह मैं नहीं
अंगप्रदेश का रोम-रोम कहता है ।

धन्य है यह अंगभूमि
जहाँ गंगा
एक बार नहीं
दो बार नहीं
तीन-तीन बार
उत्तरवाहिनी होकर बहती है ।

हे माँ गंगे
पहले तो तुम
सूर्यगढ़ा में प्रवेश करते ही
उत्तरवाहिनी होती हो
और मुंगेर तक
उत्तरवाहिनी ही बनी रहती हो
फिर सुल्तानगंज में आकर
थोड़ी दूर के लिए
और फिर
कहलगाँव से कोशी संगम तक
उत्तरवाहिनी ही बनी रहती हो ।

धन्य है
यह अंगभूमि,
कितना सौभाग्य
बाँट रही हो तुम यहाँ
यह बात मैं ही नहीं
सारे अंगवासी ही नहीं
तुम में अपनी धारा समाकर
डकरा नाला भी कह रहा है ।

हे पतितपावनी
आखिर तुम
मुद्गल ऋषि के धाम तक
आते-आते
इतनी प्रसन्न क्यों हो उठती हो
कौन-सी स्मृति
तुम्हें इतनी गुदगुदाने लगती है ?
इसलिए
कि यहाँ मुंगेर के
तुम बीचो-बीच बहती हो
या कि
तुम्हें याद आ जाती है
जब मुंगेर
चम्पक तीर्थ कहा जाता था
या कि यह याद कर
प्राचीन काल में तुम्हारे उस पार से
एक सघन वन शुरु होता था
जो नेपाल की सीमा तक जाता था
और जहाँ तक
यह जंगल जाता था
वहाँ तक
अंग महाजनपद की सीमा थी
जिसे प्राचीनकाल में
चमकारण्य भी कहते थे लोग ।

हे मोक्षदायिनी
तुम कष्टहरिणी तक पहुँच कर
आखिर क्या
देर-देर तक सोचा करती हो ?
क्या वनवास के क्रम में
आगे राम, सीता, लक्ष्मण को
याद करती हो
या पालवंश के वैभव को
याद करती हो,
जिसकी स्मृति दिलाता है
तुम्हारे किनारे बना
मुंगेर का अद्भुत गुप्तगढ़
जिसकी दीवारों में
कोठरियों में
जाने कितने युगों की कहानियाँ
हँसती-खेलती,
और रुदन करती मिलती है ।
तुम्हारे किनारे खड़ा
यह गुप्तगढ़
अपने अतीत को
तुमसे कहता है ।

माँ
मैंने तुम्हारे
कष्टहरणी घाट पर ही बैठ कर
सुनी है,
उस तांत्रिक की कहानी
जो अपने को
खौलते घी की कढ़ाई में
डाल देता था
और इस तरह
भगवती को खुश करके
सवा मन सोना
प्राप्त करता था ।

आखिर क्या करता था सोना
किस दुखिया के बीच
बाँट आता था, सोना ।
कोई नहीं जानता
लेकिन इतना तो
सभी जानते हैं कि
तुम्हारे किनारे खड़ा
इसी गुप्तगढ़ पर
कभी नरेश धर्मपाल के पुत्रा
देवपाल का ध्वज
लहराता था ।
जिसने अपने विजयोत्सव पर
तुम्हारे एक छोर से
दूसरे छोर तक
नौंकाओं का सेतु बनवा दिया था
तब तुम्हारी लहरें
नौकाओं पर लहराती
रौशनियों से
सोने की उठती तरंगें
बन गयीं थीं ।