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कथा यात्रा-4 / आभा पूर्वे

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माँ गंगे
तुमने पालवंशों के
गौरव को ही नहीं देखा है
देखा है तुमने
शेरशाह के बढ़ते पराक्रम को,
मीरकासिम की कहानियों को
तुमसे अधिक
और कौन जानता है ?
तुम्हारे किनारे बना हुआ
मुंगेर का यह गढ़
कितने-कितने इतिहास को
तुमसे कहता रहता है,
कहता है, मुगलशासकों की कहानियाँ
नारों-हुकारों की दास्तानें ।

और इन कहानियों को
समेटती हुई
गुनगुनाती हुई
चली आती है
अंगप्रदेश के गंगाधाम में
जहाँ तुम
एक बार फिर
उत्तरवाहिनी बन जाती हो
तुम्हारी इसी गति के कारण
गंगाधाम
कलशतीर्थ के नाम से
याद किया जाता है ।

माँ गंगे
तुम यहाँ आकर
कितनी प्रसन्न
कितनी शांत
कितनी गंभीर
कितनी भव्य
कितनी विराट
दिखती हो
शायद इसलिए कि
यह गंगाधाम
शिव की तपोभूमि रहा है
यहाँ पर महर्षि अगस्त्य को
उनकी तपस्या से
खुश होकर
उन्हें दर्शन दिया था
और यहीं
सोम ने
शिव की घोर तपस्या कर
शिव को
प्रसन्न कर लिया था
और उसी प्रसन्नता में
शिव ने
सोम को
अपने माथे पर
रख लिया था
और यह गंगाधाम
तभी से
काशी की तरह
पवित्रा हो रहा है ।

माँ गंगे
कभी-कभी मैं सोचती हूँ
कि आखिर
इसका नाम गंगाधाम क्यों पड़ा ?
शायद इसलिए कि
तुम्हारा पुनर्जन्म
उसी भूमि पर हुआ था
गिरि पर तपस्यारत
जद्दु ऋषि का आश्रम
जब तुम्हारी धार में
बहने लगा था
तब ऋषि ने
तुम्हें चुल्लू में लेकर
पान कर लिया था ।
यह देख
विह्नल भगीरथ ने
बहुत अनुनय किया था
तब तुम्हें जद्दु ऋषि ने
मुक्त किया था
तभी तो तुम
जाद्दवी कहलाई
यानी जद्दु ऋषि की पुत्राी ।

माँ गंगे
यह गंगाधाम
तुम्हारा मायका है
तुम्हारे पुनर्जन्म की भूमि
तभी तो यह गंगाधाम है ।
क्या कारण है कि
जब तुम
यहाँ से निकलती हो
तुम्हारे चेहरे पर
कभी कोई
उदासी नहीं दिखती
तुम किसी विराट महाकाव्य की तरह
महाभारत की तरह
रामचरित मानस की तरह
निरन्तर
प्रवाहित होती रहती हो
चम्पा से लेकर
गंगा सागर तक ।

सिमरिया से लेकर
राजमहल का विशाल क्षेत्रा
तुम्हारा नैहर ही तो है ।
हे गंगा माता
जहाँ तुम्हारी हँसी
तुम्हारा उल्लास
देखता ही बनता है ।

माँ गंगे
तुमने अंगदेश को
अंग महाजनपद को
अंगप्रदेश को
इतना कुछ दिया है कि
सारा आकाश को
सारी धरती को
अगर कागज बना दिया
और सातो समुद्र को स्याही
तब भी
अंगप्रदेश में
तुम्हारी महिमा को
नहीं लिखा जा सकता है ।

हे माता गंगे
तुमने ही तो
अंगवासियों को
वह विशाल जल मार्ग दिया था
जिस पर चलकर
अंगवासी
सुदूर देशों में गये
और बसाया
वहाँ एक नया अंगराज
‘अंगकोर’
वहाँ-वहाँ बस गई चंपा
ताकि
चम्पा की कहानियों को
दूर-दूर देशों में फैलाया जा सके ।

अंगप्रदेश की चंपा में
तुम्हारी
उतनी ही कहानियाँ
लहराती हैं,
जितनी कहानियाँ
अंगप्रदेश की
तुम्हारी लहरों पर बिछी हैं ।

कभी गंगाधाम में ही
तुम्हारे घाटों को पार कर
भगवान बुद्ध
अंगुत्तराप पहुँचे थे ।
बार-बार आये थे
भगवान बुद्ध
चम्पा में
जिस चम्पा में
गंगाधाम के बाद
तुम भी उतरती हो, माँ
अपनी सम्पूर्ण आभा को
बिखेरती हुई ।
कहती हो कथाµ
सोमदण्ड की
चम्पा के अद्वितीय वेदाभ्यासी
जो अपने शिष्यों के साथ
बुद्ध की वाणी से
अभिभूत हो कर
बौद्ध हो गये थे ।
कहती हो कथा
वासुपूज्य की
उनके जन्म से लेकर
निर्वाण तक की कथा
कहती हो कथाµ
सम्राट अशोक की माँ
सुभद्रांगी की
जो चम्पा की ही बेटी थी
कहती हो कथाµ
विशाखा की
जो भगवान बुद्ध की
प्रथम शिष्या थी ।

हे गंगे
चम्पा में ही आकर
तुम विस्तार से कहती हो
चन्दनवाला की कथा
जो भगवान महावीर की
प्रथम शिष्या थी
और फिर कहती हो
महासती बिहुला की कथा
जिसमें अपने पति को ही नहीं
जीवन दिया था
बल्कि यह सिद्ध भी किया था
कि स्त्राी चाहे तो
सारे संकटों का
मुकाबला कर
अपने अस्तित्व की
रक्षा कर सकती है ।
 
तुम्हारी एक-एक लहर
कहती है कथा
महासती बिहुला की
विषहरी की जिद की
चाँदो सौदागर की भक्ति की
उसकी समृद्धि की ।

माँ गंगे
तुम्हारे ही पुण्य को पाकर
कभी यह चम्पा
बड़े-बड़े जहाजों की
शरणस्थली बनी हुई थी
उन जहाजों से
उतरते थे
सोने, मोती, माणिक ।
चमकती थी चम्पा
सूर्य की आभा की तरह
एक-एक व्यापारी के
द्वार पर
खड़ी रहती थी सैकड़ों बैलगाड़ियाँ
सोने के मुहरों से भरी हुईं ।

धन ही नहीं बरसता था
संस्कृति भी बरसती थी
संगीत भी बरसता था
चम्पा की वासवदत्ता की कहानी
राग-रागनियों की तरह
अंगप्रदेश के घर-घर में
अभी भी घूमती फिरती है ।

दुनिया
सभी बातें जाने न जाने
राजा रोमपाद की कहानी
तो जानती ही है
जिसके दामाद थेµमहर्षि ऋषि शृंग
अवध के दशरथ के लिए
किया था यज्ञ
ओर दशरथ के आँगन में
गूंजी थी किलकारियाँ
राम की
लक्ष्मण की
शत्राुघ्न की
भरत की ।

ऋषिशृंग
तुम्हारी ही लहरों पर
चढ़ कर आये थे
चम्पा में
जिनके पिता विभांडक
अंप्रदेश के ही ऋषि थे
और तुम्हारे ही तट पर
जिनका आश्रम था ।
चम्पा में आकर
कितनी-कितनी कहानियाँ कहती हो
हे माता गंगे ।
और आखिर में सुनाती हो
महादानी
परमवीर
कर्ण की कथा
महाभारत के सूर्यपुत्रा की कहानी
जो इसी चम्पा की गंगा में
घंटों
सूर्य की उपासना में ध्यानस्थ रहता
सवा मन सोना दान भी करता
तुम्हारे तट पर खड़ा होकर,
आज भी
तुम्हारे किनारे पर खड़ा
कर्णगढ़
एक-एक कहानी को कहता है ।

अतीत औघड़ की तरह
जागता रहता है
चम्पा की गंगा के किनारे ।

हे गंगे
तुम्हारी चम्पा में
शैर्य और दान की कथा ही
नहीं दौड़ती है
यहाँ, तुम्हारे तटों पर
वैराग्य की भी
कितनी-कितनी कहानियाँ
बिखरी पड़ीं है
हीरे के पत्थरों की तरह ।
तुम्हारे किनारे
बिखरी हैं
उसी तरह प्रेम की भी गाथाएँ ।
तुम्हारे निकट आते ही
अभया की कहानी
जागने लगती है
जो रानी तो थी
किसी नरेश दधिवाहन की
लेकिन जिसे
प्रेम हो गया था
चम्पा के ही
एक महासेठ सुदर्शन से ।
राजा को खबर मिली
आदेश हुआ
सुदर्शन के सर को
उसके धड़ से
अलग कर दिया जाय
और जब जल्लाद
ऐसा करने पहुँचा
तो उसकी तलवार
फूलों की माला में बदल गई
सुदर्शन का प्रेम बच गया ।

चम्पा की गंगा
मैंने तुमसे ही सुनी है
बारी-बारी से
बिहुला,
विशाला,
चन्दनवाला,
सुभद्रांगी,
अभया,
और रानी घग्घरा की कहानियाँ ।

यह तो सभी जानते हैं
कि तुम्हारे किनारे बसने वाले
सेठ द्वारपाल के पास
अठारह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ
और दस करोड़ गौएँ थी ।
शायद किसी को
विश्वास नहीं होगा
हो भी कैसे सकता है
लेकिन ऐसी ही थी तुम्हारी चम्पा
तुमने अपना
सारा प्यार दे रखा था इसे
तभी तो
अपार धन-सम्पत्ति के साथ
तुम्हारे किनारे पर
ज्ञान की महा सरस्वती बहती थी ।

कहलगाँव
विक्रमशिला बौद्ध महाविहार का भग्नावशेष
आज भी
अतीत के ज्ञान की परम्परा को
खुले कंठ से कह रहा हैं
कि तुम्हारे किनारे-किनारे ही
दीपंकर श्री ज्ञान,
सरहपाद,
शबरपा,
चम्पपा
चेलूकपा
की वाणियाँ गूंजी थी
जेसे कि
कुप्पाघाट के किनारे-किनारे
महर्षि मेंही की वाणियाँ
तुम्हारे रेतों और लहरों पर
सातों सुर में बजती रहती हैं ।

हे गंगे
सचमुच में
अति पवित्रा है यह अंगप्रदेश
जहाँ पवित्रा मोक्षदायिनी
महानदी गंगा में
महानदी कोशी
मिलती है
और सागर की तरह
फैल जाती हो तुम
कहलगाँव में
फिर फैलती ही जाती हो
अंगप्रदेश के
आखरी छोर तक
राजमहल की कहानियाँ सुनाने
जो भारतेन्दु की बचपन भूमि है
बिहार बंगाल की किस्मत की कहानी है
बादशाहाकें का भाग्य दुर्भाग्य है ।

लेकिन इन बातों से अधिक
तुम बार-बार
इस कहानी को भी
दुहराती हो
कि किस तरह
तुम्हारे किनारे
शची ने घोर तपस्या की थी
और आखिर में
वर रूप में प्राप्त किया था
देवताओं के नरेश इन्द्र को ।