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कनवा समधी (कविता) / कोदूराम दलित

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मैं अउ मोर माहुद वाला कनवा समधी,
किंजरे बर निकले रहेन आज हम बड़े फजर ।
काबर कि समधी हर हमार एक्कोदारी,
देखे नइ रहिस कभू बपुरा हर हमर सहर ।।

पहिली जा के दुनों झन बुद्धू होटल मा,
झड़्केन चहा, भजिया-वजिया सिगरेट पान ।
तब फेर उहाँ ले असके किंजरे हन दुन्नों,
उत्ताधुर्रा सब्बो पारा, सब्बो दुकान ।।

लख हमर सहर के सोभा साफ-सफाई ला,
अकचका गइस समधी हमार एक्के दारी ।
अउ बोलिस कि ’गउकी समधी मैं बाप जनम,
नई देखे हौं गा गाँव कभू अतका भारी ।।

ये नल-बिजली, होटल-हटरी सुग्घर मकान,
टेसन, बंगला, कचहरी, सिनेमा नल-टाँकी ।
मठ–मंदिर, भीड़-भड़क्का मोटर-वोटर के,
सब देख–देख के चकरागे दुन्नों आँखी ।।

ये लाल बम्ब अँधेर अबीर-गुलाल असन,
कइसन के धुर्रा उड़त हवय चारों कोती ।
खाली आधा घंटा के किंजरे–मा समधी,
सुंदर बिन पइसा के रंग गे कुरता धोती ।।

भन-भन भन-भन भिनक-भिनक के माँछी मन,
काकर गुन ला निच्चट जुर मिल के गावत हें ।
अउ खोर-खोर, रसदा-रसदा मा टाँका के,
पावन जल अड़बड़ काबर आज बोहावत हे ।।

रसदा के दुनों कोती सूरा मन अघात,
गोबर साहीं कइसन के पाटे डारत हे ।
जम्मो नाली के महर-महर मँहकाई मा,
कनवज के अत्तर हर घलाय झक मारत हे ।।

अउ नवा बगीचा के घलाय का कहना हे,
नंदन बन हर असनेच दिखत होही सुंदर ।
बुढ्वा आमा मा बइठ–बइठ के कौवा मन,
कोयली जस बड़ निक राग सुनावत हे मनहर ।।

उज्जर-उज्जर पाँखी वाला अमली रुख मा,
ये किरिर–किरिर कोकड़ा कतेक नरियावत हें ।
का चीज ? पटा-पट गिरा-गिरा के भुइयाँ ला,
चितकबरी करके अड़बड़ सहज उड़ावत हें ।।

जोड़ी-जोड़ी चेलिक मोटियारी घुमत हवयँ,
कस समधी ! आज सहर मा कुछु होवइया हे ।
मोटर मा पानी भर के सड़क भिगोंवत हें,
का ! कोन्हों बड़का नेता आज अवइया हे ।।

सुनके कनवा समधी के गोठ हाँसी आइस,
अउ जानेंव— कि समधी हे पूरा अग्यानी ।
तब ओला समझा के ये बात बताएँव मैं,
आये हे आज इहाँ समधी ! बसंत रानी ।।

हम किंजर-किंजर के थके हवन जी दुन्नों झन,
अब घर जाईं, सुस्ताई अउ खाईं बासी ।
समधी के भकलापन के सुरता आथे,
तो आथे मोला ओतकेच बेर गजब हाँसी ।।