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"कनुप्रिया - केलिसखी / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर

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हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं?<br><br>
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सारे तन को झनझना क्यों जाता है?<br><br>
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यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही<br>
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मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को<br>
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मेरे वश में नहीं हैं-बेबस<br>
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एक-एक घूँट की तरह<br>
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क्या इसी लिए कि मुझे<br>
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दुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे<br>
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और क्या यह भय की ही काँपती उँगलियाँ हैं<br>
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जो मेरे एक-एक बन्धन को शिथिल<br>
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मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं<br>
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और कण्ठ सूख रहा है<br>
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और पलकें आधी मुँद गयी हैं<br>
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और सारे जिस्म में जैसे प्राण नहीं हैं<br><br>
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मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है<br>
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और जकड़ती जा रही हूँ<br>
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और निकट, और निकट<br>
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कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जायें<br>
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तुम्हारे प्राण मुझमें प्रतिष्ठित हो जायें<br>
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तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय शिराओं में प्रवाहित होकर<br>
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फिर से जीवन संचरित कर सके-<br><br>
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और यह मेरा कसाव निर्मम है<br>
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और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें<br>
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नागवधू की गुंजलक की भाँति<br>
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नागवधू की गुंजलक की भाँति
कसती जा रही हैं<br>
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और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर<br>
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नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों के नीले-नीले चिह्न<br>
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उभर आये हैं<br>
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और तुम व्याकुल हो उठे हो<br>
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धूप में कसे<br>
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धूप में कसे
अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्ध<br>
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हहराती लहरों के निर्मम थपेड़ों से-<br>
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छोटे-से प्रवाल-द्वीप की तरह<br>
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बेचैन-<br><br>
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उठो मेरे प्राण<br>
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और काँपते हाथों से यह वातायन बंद कर दो<br><br>
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यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा है<br>
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यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा है
पर आज मैं उधर नहीं देखना चाहती<br>
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पर आज मैं उधर नहीं देखना चाहती
यह प्रगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमती<br>
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यह प्रगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमती
ग्रहों-उपग्रहों और नक्षत्रों की<br>
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ग्रहों-उपग्रहों और नक्षत्रों की
ज्योतिर्माला मैं ही हूँ<br>
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ज्योतिर्माला मैं ही हूँ
और अंख्य ब्रह्माण्डों का<br>
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दिशाओं का, समय का<br>
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दिशाओं का, समय का
अनन्त प्रवाह मैं ही हूँ<br>
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पर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हूँ<br>
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उठो और वातायन बन्द कर दो<br>
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कि आज अँधेरे में भी दृष्टियाँ जाग उठी हैं<br>
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कि आज अँधेरे में भी दृष्टियाँ जाग उठी हैं
और हवा का आघात भी मांसल हो उठा है<br>
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और मैं अपने से ही भयभीत हूँ<br><br>
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लो मेरे असमंजस!
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अब मैं उन्मुक्त हूँ
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और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं
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प्रतीक्षा के क्षण हैं
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और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं
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पगडण्डियाँ हैं
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और मेरा यह सारा
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हलका गुलाबी, गोरा, रुपहली
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धूप-छाँव वाला सीपी जैसा जिस्म
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अब जिस्म नहीं-
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सिर्फ एक पुकार है
  
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उठो मेरे उत्तर!
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और पट बन्द कर दो
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और कह दो इस समुद्र से
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कि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ
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और कह दो दिशाओं से
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कि वे हमारे कसाव में आज
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घुल जाएँ
  
लो मेरे असमंजस!<br>
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और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से
अब मैं उन्मुक्त हूँ<br>
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कि अपने शायक उतार कर
और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं<br>
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तरकस में रख ले
प्रतीक्षा के क्षण हैं<br>
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और तोड़ दे अपना धनुष
और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं<br>
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और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप
पगडण्डियाँ हैं<br>
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प्रतीक्षा करे-
और मेरा यह सारा<br>
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जब तक मैं
हलका गुलाबी, गोरा, रुपहली<br>
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अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्न
धूप-छाँव वाला सीपी जैसा जिस्म<br>
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अपने अधरों से
अब जिस्म नहीं-<br>
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तुम्हारे वक्ष पर लिख कर, थक कर
सिर्फ एक पुकार है<br><br>
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शैथिल्य की बाँहों में
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डूब न जाऊँ…..
  
उठो मेरे उत्तर!<br>
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आओ मेरे अधैर्य!
और पट बन्द कर दो<br>
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दिशाएँ घुल गयी हैं
और कह दो इस समुद्र से<br>
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जगत् लीन हो चुका है
कि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ<br>
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समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है।
और कह दो दिशाओं से<br>
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और इस निखिल सृष्टि के
कि वे हमारे कसाव में आज <br>
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अपार विस्तार में
घुल जाएँ<br><br>
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तुम्हारे साथ मैं हूँ - केवल मैं-
  
और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से<br>
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तुम्हारी अंतरंग केलिसखी!</poem>
कि अपने शायक उतार कर<br>
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तरकस में रख ले<br>
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और तोड़ दे अपना धनुष<br>
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और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप<br>
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प्रतीक्षा करे-<br>
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जब तक मैं<br>
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अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्न<br>
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अपने अधरों से<br>
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तुम्हारे वक्ष पर लिख कर, थक कर<br>
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दिशाएँ घुल गयी हैं<br>
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और इस निखिल सृष्टि के<br>
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अपार विस्तार में<br>
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तुम्हारे साथ मैं हूँ - केवल मैं-<br><br>
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तुम्हारी अंतरंग केलिसखी!
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22:30, 29 जून 2020 का अवतरण

आज की रात
हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं?

हवा के हर झोंके का स्पर्श
सारे तन को झनझना क्यों जाता है?

और यह क्यों लगता है
कि यदि और कोई नहीं तो
यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही
मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को
पी जाने के लिए तत्पर है

और ऐसा क्यों भान होने लगा है
कि मेरे ये पाँव, माथा, पलकें, होंठ
मेरे अंग-अंग - जैसे मेरे नहीं हैं-
मेरे वश में नहीं हैं-बेबस
एक-एक घूँट की तरह
अँधियारे में उतरते जा रहे हैं
खोते जा रहे हैं
मिटते जा रहे हैं

और भय,
आदिम भय, तर्कहीन, कारणहीन भय जो
मुझे तुमसे दूर ले गया था, बहुत दूर-
क्या इसी लिए कि मुझे
दुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे
और क्या यह भय की ही काँपती उँगलियाँ हैं
जो मेरे एक-एक बन्धन को शिथिल
करती जा रही हैं
और मैं कुछ कह नहीं पाती!

मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं
और कण्ठ सूख रहा है
और पलकें आधी मुँद गयी हैं
और सारे जिस्म में जैसे प्राण नहीं हैं

मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है
और जकड़ती जा रही हूँ
और निकट, और निकट
कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जायें
तुम्हारे प्राण मुझमें प्रतिष्ठित हो जायें
तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय शिराओं में प्रवाहित होकर
फिर से जीवन संचरित कर सके-

और यह मेरा कसाव निर्मम है
और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें
नागवधू की गुंजलक की भाँति
कसती जा रही हैं
और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर
नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों के नीले-नीले चिह्न
उभर आये हैं
और तुम व्याकुल हो उठे हो
धूप में कसे
अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्ध
हहराती लहरों के निर्मम थपेड़ों से-
छोटे-से प्रवाल-द्वीप की तरह
बेचैन-

……………………………………….
………………………………….
……………………………
…………………….


उठो मेरे प्राण
और काँपते हाथों से यह वातायन बंद कर दो

यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा है
पर आज मैं उधर नहीं देखना चाहती
यह प्रगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमती
ग्रहों-उपग्रहों और नक्षत्रों की
ज्योतिर्माला मैं ही हूँ
और अंख्य ब्रह्माण्डों का
दिशाओं का, समय का
अनन्त प्रवाह मैं ही हूँ
पर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हूँ
उठो और वातायन बन्द कर दो
कि आज अँधेरे में भी दृष्टियाँ जाग उठी हैं
और हवा का आघात भी मांसल हो उठा है
और मैं अपने से ही भयभीत हूँ


………………………………….
………………………………………
लो मेरे असमंजस!
अब मैं उन्मुक्त हूँ
और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं
प्रतीक्षा के क्षण हैं
और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं
पगडण्डियाँ हैं
और मेरा यह सारा
हलका गुलाबी, गोरा, रुपहली
धूप-छाँव वाला सीपी जैसा जिस्म
अब जिस्म नहीं-
सिर्फ एक पुकार है

उठो मेरे उत्तर!
और पट बन्द कर दो
और कह दो इस समुद्र से
कि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ
और कह दो दिशाओं से
कि वे हमारे कसाव में आज
घुल जाएँ

और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से
कि अपने शायक उतार कर
तरकस में रख ले
और तोड़ दे अपना धनुष
और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप
प्रतीक्षा करे-
जब तक मैं
अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्न
अपने अधरों से
तुम्हारे वक्ष पर लिख कर, थक कर
शैथिल्य की बाँहों में
डूब न जाऊँ…..

आओ मेरे अधैर्य!
दिशाएँ घुल गयी हैं
जगत् लीन हो चुका है
समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है।
और इस निखिल सृष्टि के
अपार विस्तार में
तुम्हारे साथ मैं हूँ - केवल मैं-

तुम्हारी अंतरंग केलिसखी!