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|रचनाकार=धर्मवीर भारती
|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
}}{{KKVID|v=t3Bp2UHkjbg}}{{KKCatKavita}}<poem>पर इस सार्थकता को तुम मुझेकैसे समझाओगे कनु?
पर इस सार्थकता को तुम मुझे<br>शब्द, शब्द, शब्द…….कैसे समझाओगे कनु?<br><br>मेरे लिए सब अर्थहीन हैंयदि वे मेरे पास बैठकरमेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुएतुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलतेशब्द, शब्द, शब्द…….कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्दअर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी पाया होमैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय,सिर्फ राह में ठिठक करतुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूँजिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे
शब्द, शब्द, शब्द…….<br>- तुम्हारा साँवरा लहराता हुआ जिस्ममेरे लिए सब अर्थहीन हैं<br>तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंख-ग्रीवायदि वे मेरे पास बैठकर<br>तुम्हारी उठी हुई चंदन-बाँहेंमेरे रूखे कुन्तलों तुम्हारी अपने में उँगलियाँ उलझाए हुए<br>डूबी हुईतुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते<br>अधखुली दृष्टिशब्द, शब्द, शब्द…….<br>कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..<br>मैंने भी गलीधीरे-गली सुने हैं ये शब्द<br>अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी पाया हो<br>मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय,<br>सिर्फ राह में ठिठक कर<br>तुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूँ<br>जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे<br><br>धीरे हिलते हुए होठ!
- तुम्हारा साँवरा लहराता हुआ जिस्म<br>मैं कल्पना करती हूँ कितुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंख-ग्रीवा<br>अर्जुन की जगह मैं हूँतुम्हारी उठी हुई चंदनऔर मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया हैऔर मैं नहीं जानती कि युद्ध कौन-बाँहें<br>सा हैतुम्हारी अपने और मैं किसके पक्ष में डूबी हुई<br>हूँअधखुली दृष्टि<br>और समस्या क्या हैधीरे-धीरे हिलते हुए होठ!<br><br>और लड़ाई किस बात की हैलेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया हैक्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जानामुझे बहुत अच्छा लगता हैऔर सेनाएँ स्तब्ध खड़ी हैंऔर इतिहास स्थगित हो गया हैऔर तुम मुझे समझा रहे हो……
मैं कल्पना करती हूँ कि<br>कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व,अर्जुन की जगह मैं हूँ<br>शब्द, शब्द, शब्द…….और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है<br>और मैं नहीं जानती कि युद्ध कौनलिए नितान्त अर्थहीन हैं-सा है<br>और मैं किसके पक्ष में इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ<br>और समस्या क्या है<br>हर शब्द को अँजुरी बनाकरबूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँऔर लड़ाई किस बात की है<br>तुम्हारा तेजलेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है<br>जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन कोक्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना<br>मुझे बहुत अच्छा लगता धधका रहा है<br>और सेनाएँ स्तब्ध खड़ी हैं<br>और इतिहास स्थगित हो गया है<br>और तुम मुझे समझा रहे हो……<br><br>
और तुम्हारे जादू भरे होठों सेरजनीगन्धा के फूलों की तरह टप्-टप् शब्द झर रहे हैंएक के बाद एक के बाद एक…कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व,<br>दायित्व…शब्द, शब्द, शब्द…….<br>मेरे लिए नितान्त अर्थहीन मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं-<br>मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ<br>मुझे सुन पड़ता है केवलहर शब्द को अँजुरी बनाकर<br>बूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँ<br>और तुम्हारा तेज<br>मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को<br>धधका रहा है<br><br>राधन्, राधन्, राधन्,
और तुम्हारे जादू भरे होठों से<br>रजनीगन्धा के फूलों की तरह टप्-टप् शब्द झर रहे हैं<br>एक के बाद एक के बाद एक……<br>कर्म, स्वधर्मशब्द, निर्णयशब्द, दायित्व……..<br>मुझ तक आतेतुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु -आते सब बदल गए हैं<br>संख्यातीतमुझे सुन पड़ता पर उनका अर्थ मात्र एक है केवल<br>-राधन्मैं, राधन्मैं, राधन्,<br><br>केवल मैं!
शब्द, शब्द, शब्द,<br>तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु -संख्यातीत<br>पर उनका अर्थ मात्र एक है -<br>मैं,<br>मैं,<br>केवल मैं!<br><br> फिर उन शब्दों से<br>मुझी को<br>इतिहास कैसे समझाओगे कनु?</poem>
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