"कनुप्रिया - सृजन-संगिनी / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर
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+ | सुनो मेरे प्यार- | ||
+ | यह काल की अनन्त पगडंडी पर | ||
+ | अपनी अनथक यात्रा तय करते हुए सूरज और चन्दा, | ||
+ | बहते हुए अन्धड़ | ||
+ | गरजते हुए महासागर | ||
+ | झकोरों में नाचती हुई पत्तियाँ | ||
+ | धूप में खिले हुए फूल, और | ||
+ | चाँदनी में सरकती हुई नदियाँ | ||
+ | इनका अन्तिम अर्थ आखिर है क्या? | ||
+ | केवल तुम्हारी इच्छा? | ||
− | + | और वह क्या केवल तुम्हारा संकल्प है | |
− | + | जो धरती में सोंधापन बन कर व्याप्त है | |
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− | + | यदि इस सारे सृजन, विनाश, प्रवाह | |
− | केवल तुम्हारी इच्छा | + | और अविराम जीवन-प्रक्रिया का |
− | + | अर्थ केवल तुम्हारी इच्छा है | |
− | + | तुम्हारा संकल्प, | |
− | + | तो जरा यह तो बताओ मेरे इच्छामय, | |
− | + | कि तुम्हारी इस इच्छा का, | |
− | + | इस संकल्प का- | |
− | + | अर्थ कौन है? | |
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− | + | कौन है वह | |
− | और | + | जिसकी खोज में तुमने |
− | + | काल की अनन्त पगडंडी पर | |
− | + | सूरज और चाँद को भेज रखा है | |
− | + | कौन है जिसे तुमने | |
− | + | झंझा के उद्दाम स्वरों में पुकारा है | |
− | + | कौन है जिसके लिए तुमने | |
− | + | महासागर की उत्ताल भुजाएँ फैला दी हैं | |
+ | कौन है जिसकी आत्मा को तुमने | ||
+ | फूल की तरह खोल दिया है | ||
+ | और कौन है जिसे | ||
+ | नदियों जैसे तरल घुमाव दे-दे कर | ||
+ | तुमने तरंग-मालाओं की तरह | ||
+ | अपने कण्ठ में, वक्ष पर, कलाइयों में | ||
+ | लपेट लिया है- | ||
− | + | वह मैं हूँ मेरे प्रियतम! | |
− | + | वह मैं हूँ | |
− | + | वह मैं हूँ | |
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− | + | और यह समस्त सृष्टि रह नहीं जाती | |
− | + | लीन हो जाती है | |
− | + | जब मैं प्रगाढ़ वासना, उद्दाम क्रीड़ा | |
+ | और गहरे प्यार के बाद | ||
+ | थक कर तुम्हारी चन्दन-बाँहों में | ||
+ | अचेत बेसुध सो जाती हूँ | ||
− | + | यह निखिल सृष्टि लय हो जाती है | |
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+ | और चारों ओर गहरा अँधेरा और सूनापन- | ||
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+ | तुम फिर, फिर उसी गहरे प्यार | ||
+ | को दोहराने के लिए | ||
+ | मुझे आधी रात जगाते हो | ||
+ | आहिस्ते से, ममता से- | ||
+ | और मैं फिर जागती हूँ | ||
+ | संकल्प की तरह | ||
+ | इच्छा की तरह | ||
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− | + | वह आधी रात का प्रलयशून्य सन्नाटा | |
− | + | फिर | |
− | + | काँपते हुए गुलाबी जिस्मों | |
− | + | गुनगुने स्पर्शों | |
− | + | कसती हुई बाँहों | |
− | + | अस्फुट सीत्कारों | |
− | और | + | गहरी सौरभ भरी उसाँसों |
− | + | और अन्त में एक सार्थक शिथिल मौन से | |
− | + | आबाद हो जाता है | |
+ | रचना की तरह | ||
+ | सृष्टि की तरह- | ||
− | और | + | और मैं फिर थक कर सो जाती हूँ |
− | + | अचेत-संज्ञाहीन- | |
− | फिर | + | और फिर वही चारों ओर फैला |
− | + | गहरा अँधेरा और अथाह सूनापन | |
− | + | और तुम फिर मुझे जगाते हो! | |
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− | और | + | |
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− | और | + | और यह प्रवाह में बहती हुई |
− | + | तुम्हारी असंख्य सृष्टियों का क्रम | |
− | + | महज हमारे गहरे प्यार | |
− | + | प्रगाढ़ विलास | |
− | और | + | और अतृप्त क्रीड़ा की अनन्त पुनरावृत्तियाँ हैं- |
+ | ओ मेरे स्रष्टा | ||
+ | तुम्हारे सम्पूर्ण अस्तित्व का अर्थ है | ||
+ | मात्र तुम्हारी सृष्टि | ||
− | + | तुम्हारी सम्पूर्ण सृष्टि का अर्थ है | |
− | तुम्हारी | + | मात्र तुम्हारी इच्छा |
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− | मात्र तुम्हारी | + | |
− | + | और तुम्हारी सम्पूर्ण इच्छा का अर्थ हूँ | |
− | + | केवल मैं! | |
− | + | केवल मैं!! | |
− | और तुम्हारी सम्पूर्ण इच्छा का अर्थ हूँ | + | केवल मैं!!! |
− | केवल मैं! | + | </poem> |
− | केवल मैं!! | + | |
− | केवल मैं!!!< | + |
23:04, 4 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
सुनो मेरे प्यार-
यह काल की अनन्त पगडंडी पर
अपनी अनथक यात्रा तय करते हुए सूरज और चन्दा,
बहते हुए अन्धड़
गरजते हुए महासागर
झकोरों में नाचती हुई पत्तियाँ
धूप में खिले हुए फूल, और
चाँदनी में सरकती हुई नदियाँ
इनका अन्तिम अर्थ आखिर है क्या?
केवल तुम्हारी इच्छा?
और वह क्या केवल तुम्हारा संकल्प है
जो धरती में सोंधापन बन कर व्याप्त है
जो जड़ों में रस बन कर खिंचता है
कोंपलों में फूटता है,
पत्तों में हरियाता है,
फूलों में खिलता है,
फलों में गदरा आता है-
यदि इस सारे सृजन, विनाश, प्रवाह
और अविराम जीवन-प्रक्रिया का
अर्थ केवल तुम्हारी इच्छा है
तुम्हारा संकल्प,
तो जरा यह तो बताओ मेरे इच्छामय,
कि तुम्हारी इस इच्छा का,
इस संकल्प का-
अर्थ कौन है?
कौन है वह
जिसकी खोज में तुमने
काल की अनन्त पगडंडी पर
सूरज और चाँद को भेज रखा है
कौन है जिसे तुमने
झंझा के उद्दाम स्वरों में पुकारा है
कौन है जिसके लिए तुमने
महासागर की उत्ताल भुजाएँ फैला दी हैं
कौन है जिसकी आत्मा को तुमने
फूल की तरह खोल दिया है
और कौन है जिसे
नदियों जैसे तरल घुमाव दे-दे कर
तुमने तरंग-मालाओं की तरह
अपने कण्ठ में, वक्ष पर, कलाइयों में
लपेट लिया है-
वह मैं हूँ मेरे प्रियतम!
वह मैं हूँ
वह मैं हूँ
और यह समस्त सृष्टि रह नहीं जाती
लीन हो जाती है
जब मैं प्रगाढ़ वासना, उद्दाम क्रीड़ा
और गहरे प्यार के बाद
थक कर तुम्हारी चन्दन-बाँहों में
अचेत बेसुध सो जाती हूँ
यह निखिल सृष्टि लय हो जाती है
और मैं प्रसुप्त, संज्ञाशून्य,
और चारों ओर गहरा अँधेरा और सूनापन-
और मजबूर होकर
तुम फिर, फिर उसी गहरे प्यार
को दोहराने के लिए
मुझे आधी रात जगाते हो
आहिस्ते से, ममता से-
और मैं फिर जागती हूँ
संकल्प की तरह
इच्छा की तरह
और लो
वह आधी रात का प्रलयशून्य सन्नाटा
फिर
काँपते हुए गुलाबी जिस्मों
गुनगुने स्पर्शों
कसती हुई बाँहों
अस्फुट सीत्कारों
गहरी सौरभ भरी उसाँसों
और अन्त में एक सार्थक शिथिल मौन से
आबाद हो जाता है
रचना की तरह
सृष्टि की तरह-
और मैं फिर थक कर सो जाती हूँ
अचेत-संज्ञाहीन-
और फिर वही चारों ओर फैला
गहरा अँधेरा और अथाह सूनापन
और तुम फिर मुझे जगाते हो!
और यह प्रवाह में बहती हुई
तुम्हारी असंख्य सृष्टियों का क्रम
महज हमारे गहरे प्यार
प्रगाढ़ विलास
और अतृप्त क्रीड़ा की अनन्त पुनरावृत्तियाँ हैं-
ओ मेरे स्रष्टा
तुम्हारे सम्पूर्ण अस्तित्व का अर्थ है
मात्र तुम्हारी सृष्टि
तुम्हारी सम्पूर्ण सृष्टि का अर्थ है
मात्र तुम्हारी इच्छा
और तुम्हारी सम्पूर्ण इच्छा का अर्थ हूँ
केवल मैं!
केवल मैं!!
केवल मैं!!!