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"कबीर दोहावली / पृष्ठ १" के अवतरणों में अंतर

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(New page: दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय । <BR/> जो सुख मे सुमरिन करे, दुख कहे को...)
 
 
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दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय । <BR/>
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जो सुख मे सुमरिन करे, दुख कहे को होय ॥ 1 ॥ <BR/><BR/>
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दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय ।  
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जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥  
  
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय । <BR/>
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तिनका कबहुँ निंदिये, जो पाँयन तर होय ।  
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ 2 ॥ <BR/><BR/>
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कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥  
  
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । <BR/>
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माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।  
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥ <BR/><BR/>
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कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥  
  
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । <BR/>
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गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।  
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥ <BR/><BR/>
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बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥  
  
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । <BR/>
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बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।  
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥ <BR/><BR/>
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मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥  
  
कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख । <BR/>
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कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।  
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥ <BR/><BR/>
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माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥  
  
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद । <BR/>
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सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।  
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥ <BR/><BR/>
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कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥  
  
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । <BR/>
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साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।  
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥ <BR/><BR/>
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मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥  
  
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । <BR/>
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लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।  
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥ <BR/><BR/>
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पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥  
  
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । <BR/>
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जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।  
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥ <BR/><BR/>
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मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥  
  
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । <BR/>
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जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।  
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥ <BR/><BR/>
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जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥  
  
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । <BR/>
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धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।  
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥ <BR/><BR/>
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माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥  
  
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । <BR/>
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कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।  
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥ <BR/><BR/>
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हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥  
  
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । <BR/>
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पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।  
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥ <BR/><BR/>
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एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥  
  
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । <BR/>
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कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।  
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥ <BR/><BR/>
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जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥  
  
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । <BR/>
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शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।  
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥ <BR/><BR/>
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तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥  
  
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । <BR/>
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माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।  
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥ <BR/><BR/>
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आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥  
  
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । <BR/>
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माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।  
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥ <BR/><BR/>
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एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥  
  
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । <BR/>
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रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।  
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥ <BR/><BR/>
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हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥  
  
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । <BR/>
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नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।  
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥ <BR/><BR/>
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और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥  
  
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल । <BR/>
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जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।  
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥ <BR/><BR/>
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तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥  
  
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । <BR/>
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दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥ <BR/><BR/>
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तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । <BR/>
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एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥ <BR/><BR/>
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आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।  
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एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥  
  
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । <BR/>
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काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।  
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥ <BR/><BR/>
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पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥  
  
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । <BR/>
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माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।  
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥ <BR/><BR/>
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माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥  
  
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । <BR/>
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जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।  
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥ <BR/><BR/>
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कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥  
  
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । <BR/>
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माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥ <BR/><BR/>
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भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥  
  
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान । <BR/>
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आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।  
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥ <BR/><BR/>
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सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥  
  
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह । <BR/>
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क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।  
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥ <BR/><BR/>
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साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥  
  
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । <BR/>
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गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।  
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥ <BR/><BR/>
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हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥  
  
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय । <BR/>
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दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥ <BR/><BR/>
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बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥  
  
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर । <BR/>
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दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।  
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥ <BR/><BR/>
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अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥  
  
दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन । <BR/>
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दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी का कौन ।  
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥ <BR/><BR/>
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रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥  
  
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय । <BR/>
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ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।  
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥ <BR/><BR/>
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औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥  
  
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट । <BR/>
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हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।  
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥ <BR/><BR/>
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बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥  
  
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार । <BR/>
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कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।  
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥ <BR/><BR/>
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साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥  
  
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । <BR/>
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जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।  
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥ <BR/><BR/>
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यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥  
  
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय । <BR/>
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मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।  
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥ <BR/><BR/>
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मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥  
  
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप । <BR/>
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सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।  
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥ <BR/><BR/>
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यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥  
  
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ । <BR/>
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अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।  
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥ <BR/><BR/>
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मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥  
  
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ । <BR/>
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बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।  
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥ <BR/><BR/>
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नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥  
  
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट । <BR/>
+
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।  
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥ <BR/><BR/>
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चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥  
  
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय । <BR/>
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कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।  
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥ <BR/><BR/>
+
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥  
  
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप । <BR/>
+
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।  
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥ <BR/><BR/>
+
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥  
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । <BR/>
+
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥ <BR/><BR/>
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हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध <BR/>
+
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।  
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध 46 <BR/><BR/>
+
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार 45 ॥  
  
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस <BR/>
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हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।  
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश 47 <BR/><BR/>
+
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध 46 ॥  
  
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच <BR/>
+
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।  
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच 48 <BR/><BR/>
+
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश 47 ॥  
  
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार <BR/>
+
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।  
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार 49 <BR/><BR/>
+
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच 48 ॥  
  
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन <BR/>
+
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।  
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन 50 <BR/><BR/>
+
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार 49 ॥  
  
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । <BR/>
+
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
 +
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
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 +
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।  
 
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥  
 
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥  
  
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । <BR/>
+
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।  
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ <BR/><BR/>
+
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥  
 +
 
 +
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
 +
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
 +
 
 +
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
 +
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥
 +
 
 +
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
 +
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
 +
 
 +
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
 +
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
 +
 
 +
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
 +
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥
  
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय <BR/>
+
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।  
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय 53 <BR/><BR/>
+
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय 58 ॥  
  
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल <BR/>
+
लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।  
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल 54 <BR/><BR/>
+
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय 59 ॥  
  
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय <BR/>
+
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।  
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय 55 <BR/><BR/>
+
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय 60 ॥  
  
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय <BR/>
+
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।  
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय 56 <BR/><BR/>
+
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार 61 ॥  
  
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय <BR/>
+
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।  
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय 57 <BR/><BR/>
+
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार 62 ॥  
  
साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय <BR/>
+
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।  
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय 58 <BR/><BR/>
+
तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो सम्हार 63 ॥  
  
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय <BR/>
+
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।  
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय 59 <BR/><BR/>
+
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय 64 ॥  
  
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय <BR/>
+
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।  
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय 60 <BR/><BR/>
+
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय 65 ॥  
  
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार <BR/>
+
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।  
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार 61 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग 66 ॥  
  
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार <BR/>
+
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।  
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार 62 <BR/><BR/>
+
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल 67 ॥  
  
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार <BR/>
+
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।  
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार 63 <BR/><BR/>
+
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार 68 ॥  
  
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय <BR/>
+
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।  
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय 64 <BR/><BR/>
+
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग 69 ॥  
  
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय <BR/>
+
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।  
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय 65 <BR/><BR/>
+
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं 70 ॥  
  
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग <BR/>
+
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।  
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग 66 <BR/><BR/>
+
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास 71 ॥  
  
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल <BR/>
+
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।  
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल 67 <BR/><BR/>
+
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय 72 ॥  
  
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार <BR/>
+
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।  
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार 68 <BR/><BR/>
+
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद 73 ॥  
  
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग <BR/>
+
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।  
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग 69 <BR/><BR/>
+
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय 74 ॥  
  
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि <BR/>
+
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।  
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं 70 <BR/><BR/>
+
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम 75 ॥  
  
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश <BR/>
+
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।  
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास 71 <BR/><BR/>
+
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी 76 ॥  
  
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय <BR/>
+
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।  
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय 72 <BR/><BR/>
+
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात 77 ॥  
  
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद <BR/>
+
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।  
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद 73 <BR/><BR/>
+
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव 78 ॥  
  
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय <BR/>
+
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।  
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय 74 <BR/><BR/>
+
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त 79 ॥  
  
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम <BR/>
+
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।  
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम 75 <BR/><BR/>
+
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द 80 ॥  
  
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी <BR/>
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दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।  
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी 76 <BR/><BR/>
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सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय 81 ॥  
  
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात <BR/>
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जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।  
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात 77 <BR/><BR/>
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प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय 82 ॥  
  
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव <BR/>
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छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।  
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव 78 <BR/><BR/>
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अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय 83 ॥  
  
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त <BR/>
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जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।  
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त 79 <BR/><BR/>
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दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम 84 ॥  
  
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद <BR/>
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कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।  
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द 80 <BR/><BR/>
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टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय 85 ॥  
  
दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय <BR/>
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ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।  
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय 81 <BR/><BR/>
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नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय 86 ॥  
  
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय <BR/>
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सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।  
प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय 82 <BR/><BR/>
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जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय 87 ॥  
  
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय <BR/>
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संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।  
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय 83 <BR/><BR/>
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कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक 88 ॥  
  
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम <BR/>
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मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।  
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यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष 89 ॥  
  
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय <BR/>
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जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।  
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय 85 <BR/><BR/>
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मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास 90 ॥  
  
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काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।  
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काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय 91 ॥  
  
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सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।  
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शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह 92 ॥  
  
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बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम ।  
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कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम 93 ॥  
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फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।  
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कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम 94 ॥  
  
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तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।  
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कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास 95 ॥  
  
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कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।  
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कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव 96 ॥  
  
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कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा 97 ॥  
  
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तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।  
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कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय 98 ॥  
  
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जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।  
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मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय 99 ॥  
  
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कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।  
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[[कबीर दोहावली / पृष्ठ २|अगला भाग >>]]
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥ <BR/><BR/>
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23:03, 23 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण

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दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥

तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय ।
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥

गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥

बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥

कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥

सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥

साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥

जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥

कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥

शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥

जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥
 
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥

माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥

जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥

आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥

क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥

गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥

दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥

दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥

दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥

ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥

हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥

कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥

मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥

सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥

अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥

बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥

अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥

कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥

पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥

बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥

हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥

राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥

जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥

तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥

सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥

समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥

हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥

कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥

वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥

कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥

कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥

जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥

लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥

भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥

अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥

मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो सम्हार ॥ 63 ॥

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥

प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥

सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥

सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥

छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥

ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥

जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥

जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥

नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥

आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥

जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥

जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥

दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥

बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥

जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥

फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥

दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥

दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥ 82 ॥

छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥

कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥

ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥

संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥

मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥

जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥

काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥

सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥

बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥

तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥

कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥

तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥

जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥

कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥



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