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"कबीर दोहावली / पृष्ठ ४" के अवतरणों में अंतर

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सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । <BR/>
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तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ <BR/><BR/>
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सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।  
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तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥  
  
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । <BR/>
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हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।  
मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ <BR/><BR/>
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मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥  
  
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । <BR/>
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कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।  
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ <BR/><BR/>
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पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥  
  
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । <BR/>
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कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई ।  
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ <BR/><BR/>
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सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥  
  
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ । <BR/>
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त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।  
जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ <BR/><BR/>
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जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥  
  
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ । <BR/>
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कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ ।  
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ <BR/><BR/>
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सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥  
  
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । <BR/>
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कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ ।  
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ <BR/><BR/>
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सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥  
कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि । <BR/>
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सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥ <BR/><BR/>
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कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास <BR/>
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कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि ।  
पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस 309 <BR/><BR/>
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सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि 308 ॥  
  
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक <BR/>
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कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास ।  
और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच 310 <BR/><BR/>
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पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस 309 ॥  
  
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह <BR/>
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बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक ।  
जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह 311 <BR/><BR/>
+
और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच 310 ॥  
  
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ <BR/>
+
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह ।  
मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ 312 <BR/><BR/>
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जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह 311 ॥  
  
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड <BR/>
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माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ ।  
जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड 313 <BR/><BR/>
+
मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ 312 ॥  
  
कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ <BR/>
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करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड ।  
बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ 314 <BR/><BR/>
+
जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड 313 ॥  
  
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग <BR/>
+
कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।  
राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग 315 <BR/><BR/>
+
बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ 314 ॥  
  
पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद <BR/>
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मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग ।  
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद 316 <BR/><BR/>
+
राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग 315 ॥  
  
जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल <BR/>
+
पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद ।  
पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल 317 <BR/><BR/>
+
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद 316 ॥  
  
काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ <BR/>
+
जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल ।  
दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ 318 <BR/><BR/>
+
पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल 317 ॥  
  
प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच <BR/>
+
काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ ।  
तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच 319 <BR/><BR/>
+
दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ 318 ॥  
  
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप <BR/>
+
प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच ।  
जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप 320 <BR/><BR/>
+
तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥  
  
खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून <BR/>
+
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।  
देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन 321 <BR/><BR/>
+
जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप 320 ॥  
  
साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ <BR/>
+
खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून ।  
जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ 322 <BR/><BR/>
+
देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन 321 ॥  
  
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय <BR/>
+
साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ ।  
कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय 323 <BR/><BR/>
+
जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ 322 ॥  
  
जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास <BR/>
+
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय ।  
सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास 324 <BR/><BR/>
+
कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय 323 ॥  
  
जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम <BR/>
+
जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास ।  
राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम 325 <BR/><BR/>
+
सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास 324 ॥  
  
कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ <BR/>
+
जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम ।  
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ 326 <BR/><BR/>
+
राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम 325 ॥  
  
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि <BR/>
+
कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ ।  
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग 327 <BR/><BR/>
+
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ 326 ॥  
  
मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम <BR/>
+
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।  
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम 328 <BR/><BR/>
+
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग 327 ॥  
  
मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ <BR/>
+
मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम ।  
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥ <BR/><BR/>
+
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम 328 ॥  
कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ । <BR/>
+
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ 330 <BR/><BR/>
+
  
उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान <BR/>
+
मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।  
धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान 331 <BR/><BR/>
+
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ 329 ॥  
  
जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग <BR/>
+
कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ ।  
पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग 332 <BR/><BR/>
+
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ 330 ॥  
  
जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु <BR/>
+
उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान ।  
ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु 333 <BR/><BR/>
+
धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान 331 ॥  
  
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै <BR/>
+
जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग ।  
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै 334 <BR/><BR/>
+
पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग 332 ॥  
  
कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम <BR/>
+
जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु ।  
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम 335 <BR/><BR/>
+
ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु 333 ॥  
  
कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय <BR/>
+
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।  
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ 336 <BR/><BR/>
+
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै 334 ॥  
  
कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई <BR/>
+
कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम ।  
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ 337 <BR/><BR/>
+
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम 335 ॥  
  
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । <BR/>
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कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।
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जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥
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कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई ।
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जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥
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माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई ।  
 
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥  
 
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥  
  
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । <BR/>
+
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।  
कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ <BR/><BR/>
+
कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥  
 +
 
 +
हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।
 +
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥
 +
काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार ।
 +
बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥
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पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।
 +
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥
 +
 
 +
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
 +
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥
  
हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत <BR/>
+
कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ ।  
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ <BR/><BR/>
+
विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ 353 ॥  
काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । <BR/>
+
बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार 341 <BR/><BR/>
+
  
पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण <BR/>
+
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।  
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह 342 <BR/><BR/>
+
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग 354 ॥  
  
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति <BR/>
+
मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।  
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति 343 <BR/><BR/>
+
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि 355 ॥  
  
कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ <BR/>
+
मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ ।  
विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ 353 <BR/><BR/>
+
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ 356 ॥  
  
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग <BR/>
+
एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ ।  
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग 354 <BR/><BR/>
+
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ 357 ॥  
  
मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि <BR/>
+
कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ ।  
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि 355 <BR/><BR/>
+
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ 358 ॥  
  
मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ <BR/>
+
जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि ।  
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ 356 <BR/><BR/>
+
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि 359 ॥  
  
एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ <BR/>
+
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।  
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ 357 <BR/><BR/>
+
इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ 360 ॥  
  
कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ <BR/>
+
बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।  
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ 358 <BR/><BR/>
+
आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति 361 ॥  
  
जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि <BR/>
+
कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस ।  
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि 359 <BR/><BR/>
+
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस 362 ॥  
  
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ <BR/>
+
नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ ।  
इत के भये उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥ <BR/><BR/>
+
गाहक राजा राम है, और नेडा आइ 363 ॥  
बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत । <BR/>
+
आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति 361 <BR/><BR/>
+
  
कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस <BR/>
+
उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं ।  
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस 362 <BR/><BR/>
+
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं 364 ॥  
  
नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ <BR/>
+
कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट ।  
गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ 363 <BR/><BR/>
+
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट 365 ॥  
  
उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं <BR/>
+
मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि ।  
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं 364 <BR/><BR/>
+
कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि 366 ॥  
  
कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट <BR/>
+
कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।  
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट 365 <BR/><BR/>
+
माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि 367 ॥  
  
मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि <BR/>
+
माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ ।  
कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि 366 <BR/><BR/>
+
मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ 368 ॥  
  
कबीर माला मन की, और संसारी भेष <BR/>
+
कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार ।  
माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि 367 <BR/><BR/>
+
मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार 369 ॥  
  
माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू होइ <BR/>
+
माला पहरयां कुछ नहीं, भगति आई हाथ ।  
मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ 368 <BR/><BR/>
+
माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ 370 ॥  
  
कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार <BR/>
+
बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।  
मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार 369 <BR/><BR/>
+
छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक 371 ॥  
  
माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ <BR/>
+
स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि ।  
माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ 370 <BR/><BR/>
+
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि 372 ॥  
  
बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक <BR/>
+
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।  
छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥ <BR/><BR/>
+
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ 373 ॥  
स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि । <BR/>
+
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि 372 <BR/><BR/>
+
  
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात <BR/>
+
एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार ।  
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ 373 <BR/><BR/>
+
अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार 374 ॥  
  
एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार <BR/>
+
कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर ।  
अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार 374 <BR/><BR/>
+
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस 375 ॥  
  
कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर <BR/>
+
सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।  
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि चढ़ई मांस 375 <BR/><BR/>
+
लालों की नहि बोरियाँ, साध चलै जमात 376 ॥  
  
सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत <BR/>
+
गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।  
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात 376 <BR/><BR/>
+
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह 377 ॥  
  
गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह । <BR/>
+
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।  
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह 377 <BR/><BR/>
+
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह 378 ॥  
  
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह <BR/>
+
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ ।  
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह 378 <BR/><BR/>
+
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ 379 ॥  
  
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ <BR/>
+
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।  
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ 379 <BR/><BR/>
+
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख 380 ॥  
  
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि <BR/>
+
राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई ।  
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख 380 <BR/><BR/>
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तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई 381 ॥  
  
राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई <BR/>
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पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।  
तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई 381 <BR/><BR/>
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चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ 382 ॥  
  
पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ <BR/>
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फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई ।  
चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ 382 <BR/><BR/>
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जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई 383 ॥  
  
फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई <BR/>
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हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि ।  
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई 383 <BR/><BR/>
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तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि 384 ॥  
  
हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि <BR/>
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जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।  
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ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं 385 ॥  
  
जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं <BR/>
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कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास ।  
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जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास 386 ॥  
  
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क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान ।  
जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास 386 <BR/><BR/>
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वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम 387 ॥  
  
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान <BR/>
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काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।  
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मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम 388 ॥  
  
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम <BR/>
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दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।  
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम 388 <BR/><BR/>
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सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि 389 ॥  
  
दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि <BR/>
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कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।  
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यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि 390 ॥  
  
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कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।  
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अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ 391 ॥  
  
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भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।  
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भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग 392 ॥  
  
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग <BR/>
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रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।  
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दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ 393 ॥  
  
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कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।  
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हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ 394 ॥  
  
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मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।  
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कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि 395 ॥  
  
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मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।  
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ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह 396 ॥  
  
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संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।  
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साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ 397 ॥  
  
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कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।  
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काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत 398 ॥  
  
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कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ ।  
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पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज 399 ॥  
  
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जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।  
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कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद 400 ॥  
  
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[[कबीर दोहावली / पृष्ठ ५|अगला भाग >>]]
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥ <BR/><BR/>
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09:54, 13 जून 2013 के समय का अवतरण

सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।
तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥

हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।
मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥

कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥

कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥

त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।
जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥

कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ ।
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥

कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ ।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥

कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥

कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास ।
पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ 309 ॥

बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक ।
और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥

कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह ।
जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥

माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ ।
मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥

करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड ।
जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥

कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।
बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥

मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग ।
राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥

पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥

जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल ।
पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 317 ॥

काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ ।
दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥

प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच ।
तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥

खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून ।
देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥

साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ ।
जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥

तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय ।
कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥

जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास ।
सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥

जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम ।
राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥

कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥

मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम ।
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥

मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥

कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ ।
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥

उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान ।
धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥

जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग ।
पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥

जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु ।
ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥

कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥

कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम ।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥

कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥

कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई ।
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥

माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई ।
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥

मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥

हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥
काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥

पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥

आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥

कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ ।
विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥

कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥

मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥

मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥

एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ ।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 357 ॥

कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ ।
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥

जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥

कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥

बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥

कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस ।
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥

नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ ।
गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ ॥ 363 ॥

उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं ।
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥

कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट ।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥

मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि ।
कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥

कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।
माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥

माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ ।
मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥

कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार ।
मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥

माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।
माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥

बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।
छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥

स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि ।
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥

एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार ।
अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥

कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर ।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥

सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥

गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥

निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥

जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥

काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥

राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई ।
तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥

पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥

फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई ।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥

हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि ।
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥

जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥

कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥

क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान ।
वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥

काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥

दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥

कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥

कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥

भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥

रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥

कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥

मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥

मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥

संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।
साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥

कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥

कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥

जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥

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