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कबीर दोहावली / पृष्ठ ६

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|सारणी=दोहावली / कबीर
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<poem>
जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥
जाका गुरु है गीरहीमिला तब जानिये, गिरही चेला होय मिटै मोह तन ताप <BR/>कीच-कीच के धोवतेहरष शोष व्यापे नहीं, दाग न छूटे कोय तब गुरु आपे आप 501 502 <BR/><BR/>
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह यह तन ताप विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान <BR/>हरष शोष व्यापे नहीं, तब सीस दिये जो गुरु आपे आप मिलै, तो भी सस्ता जान 502 503 <BR/><BR/>
यह तन विषय की बेलरीबँधे को बँधा मिला, गुरु अमृत की खान छूटै कौन उपाय <BR/>सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय 503 504 <BR/><BR/>
बँधे को बँधा मिलागुरु बिचारा क्या करै, छूटै कौन उपाय शब्द न लागै अंग <BR/>कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग 504 505 <BR/><BR/>
गुरु बिचारा क्या करैकरे, शब्द न लागै अंग ह्रदय भया कठोर <BR/>कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर 505 506 <BR/><BR/>
गुरु बिचारा क्या करेकहता हूँ कहि जात हूँ, ह्रदय भया कठोर देता हूँ हेला <BR/>नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला 506 507 <BR/><BR/>
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला । <BR/>गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 शिष्य के विषय मे दोहे <BR/><BR/>
॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥
शिष्य पुजै आपनाहिरदे ज्ञान न उपजै, गुरु पूजै सब साध मन परतीत न होय <BR/>कहैं कबीर गुरु शीष कोताके सद्गुरु कहा करें, मत है अगम अगाध घनघसि कुल्हरन होय 508 509 <BR/><BR/>
हिरदे ज्ञान ऐसा कोई उपजैमिला, मन परतीत न होय जासू कहूँ निसंक <BR/>ताके सद्गुरु कहा करेंजासो हिरदा की कहूँ, घनघसि कुल्हरन होय सो फिर मारे डंक 509 510 <BR/><BR/>
ऐसा कोई न मिलाशिष किरपिन गुरु स्वारथी, जासू कहूँ निसंक किले योग यह आय <BR/>जासो हिरदा की कहूँकीच-कीच के दाग को, सो फिर मारे डंक कैसे सके छुड़ाय 510 511 <BR/><BR/>
शिष किरपिन गुरु स्वारथीस्वामी सेवक होय के, किले योग यह आय मनही में मिलि जाय <BR/>कीच-कीच के दाग कोचतुराई रीझै नहीं, कैसे सके छुड़ाय रहिये मन के माय 511 512 <BR/><BR/>
स्वामी सेवक होय गुरु कीजिए जानि के, मनही में मिलि जाय पानी पीजै छानि <BR/>चतुराई रीझै नहींबिना विचारे गुरु करे, रहिये मन के माय परे चौरासी खानि 512 513 <BR/><BR/>
गुरु कीजिए जानि केसत को खोजत मैं फिरूँ, पानी पीजै छानि सतिया न मिलै न कोय <BR/>बिना विचारे गुरु करेजब सत को सतिया मिले, परे चौरासी खानि विष तजि अमृत होय 513 514 <BR/><BR/>
सत को खोजत देश-देशान्तर मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय मानुष बड़ा सुकाल <BR/>जब सत को सतिया मिलेजा देखै सुख उपजै, विष तजि अमृत होय वाका पड़ा दुकाल 514 515 <BR/><BR/>
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल । <BR/>जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल 515 भिक्ति के विषय मे दोहे <BR/><BR/>
॥ भिक्ति के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ नारी कूकरी होय । <BR/>माटी लदै कुम्हार कीगली-गली भूँकत फिरै, घास टूक न डारै कोय ॥ 516 517 <BR/><BR/>
कबीर गुरु की भक्ति बिनजो कामिनि परदै रहे, नारी कूकरी होय सुनै न गुरुगुण बात <BR/>गली-गली भूँकत फिरैसो तो होगी कूकरी, टूक न डारै कोय फिरै उघारे गात 517 518 <BR/><BR/>
जो कामिनि परदै रहेचौंसठ दीवा जोय के, सुनै न गुरुगुण बात चौदह चन्दा माहिं <BR/>सो तो होगी कूकरीतेहि घर किसका चाँदना, फिरै उघारे गात जिहि घर सतगुरु नाहिं 518 519 <BR/><BR/>
चौंसठ दीवा जोय केहरिया जाने रूखाड़ा, चौदह चन्दा माहिं उस पानी का नेह <BR/>तेहि घर किसका चाँदनासूखा काठ न जानिहै, जिहि घर सतगुरु नाहिं कितहूँ बूड़ा गेह 519 520 <BR/><BR/>
हरिया जाने रूखाड़ाझिरमिर झिरमिर बरसिया, उस पानी का नेह पाहन ऊपर मेह <BR/>सूखा काठ न जानिहैमाटी गलि पानी भई, कितहूँ बूड़ा गेह पाहन वाही नेह 520 521 <BR/><BR/>
झिरमिर झिरमिर बरसियाकबीर ह्रदय कठोर के, पाहन ऊपर मेह शब्द न लागे सार <BR/>माटी गलि पानी भईसुधि-सुधि के हिरदे विधे, पाहन वाही नेह उपजै ज्ञान विचार 521 522 <BR/><BR/>
कबीर ह्रदय कठोर चन्दर केभिरै, शब्द न लागे सार नीम भी चन्दन होय <BR/>सुधि-सुधि के हिरदे विधेबूड़यो बाँस बड़ाइया, उपजै ज्ञान विचार यों जनि बूड़ो कोय 522 523 <BR/><BR/>
कबीर चन्दर के भिरैपशुआ सों पालो परो, नीम भी चन्दन होय रहू-रहू हिया न खीज <BR/>बूड़यो बाँस बड़ाइयाऊसर बीज न उगसी, यों जनि बूड़ो कोय बोवै दूना बीज 523 524 <BR/><BR/>
पशुआ सों पालो परोकंचन मेरू अरपही, रहू-रहू हिया न खीज अरपैं कनक भण्डार <BR/>ऊसर बीज कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ उगसी, बोवै दूना बीज पावै पार 524 525 <BR/><BR/>
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग <BR/>कहैं कबीर गुरु बेमुखीताकि औषण मौन है, कबहूँ न पावै पार विष नहिं व्यापै अंग 525 526 <BR/><BR/>
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार <BR/>ताकि औषण मौन हैबिनु गुरु निगुरा जो रहे, विष नहिं व्यापै अंग पड़े चौरासी धार 526 527 <BR/><BR/>
शुकदेव सरीखा फेरियाकबीर लहरि समुन्द्र की, तो को पावे पार मोती बिखरे आय <BR/>बिनु गुरु निगुरा जो रहेबगुला परख न जानई, पड़े चौरासी धार हंस चुनि-चुनि खाय 527 528 <BR/><BR/>
कबीर लहरि समुन्द्र कीसाकट कहा न कहि चलै, मोती बिखरे आय सुनहा कहा न खाय <BR/>बगुला परख न जानईजो कौवा मठ हगि भरै, हंस चुनि-चुनि खाय तो मठ को कहा नशाय 528 529 <BR/><BR/>
साकट कहा न कहि चलैमन का जेवरा, सुनहा कहा न खाय भजै सो करराय <BR/>जो कौवा मठ हगि भरैदो अच्छर गुरु बहिरा, तो मठ को कहा नशाय बाधा जमपुर जाय 529 530 <BR/><BR/>
कबीर साकट मन का जेवराकी सभा, भजै सो करराय तू मति बैठे जाय <BR/>दो अच्छर गुरु बहिराएक गुवाड़े कदि बड़ै, बाधा जमपुर जाय रोज गदहरा गाय 530 531 <BR/><BR/>
कबीर साकट की सभासंगत सोई बिगुर्चई, तू मति बैठे जाय जो है साकट साथ <BR/>एक गुवाड़े कदि बड़ैकंचन कटोरा छाड़ि के, रोज गदहरा गाय सनहक लीन्ही हाथ 531 532 <BR/><BR/>
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ संग न बैठिये करन कुबेर समान <BR/>कंचन कटोरा छाड़ि केताके संग न चलिये, सनहक लीन्ही हाथ पड़ि हैं नरक निदान 532 533 <BR/><BR/>
साकट संग टेक बैठिये करन कुबेर समान कीजै बावरे, टेक माहि है हानि <BR/>ताके संग न चलियेटेक छाड़ि मानिक मिलै, पड़ि हैं नरक निदान सत गुरु वचन प्रमानि 533 534 <BR/><BR/>
टेक न कीजै बावरेसाकट सूकर कीकरा, टेक माहि तीनों की गति एक है हानि <BR/>कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि 534 535 <BR/><BR/>
साकट सूकर कीकरानिगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, तीनों की गति एक है गुरुमुख भला चमार <BR/>कोटि जतन परमोघियेदेवतन से कुत्ता भला, तऊ न छाड़े टेक नित उठि भूँके द्वार 535 536 <BR/><BR/>
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भलाहरिजन आवत देखिके, गुरुमुख भला चमार मोहड़ो सूखि गयो <BR/>देवतन से कुत्ता भलाभाव भक्ति समझयो नहीं, नित उठि भूँके द्वार मूरख चूकि गयो 536 537 <BR/><BR/>
हरिजन आवत देखिकेखसम कहावै बैरनव, मोहड़ो सूखि गयो घर में साकट जोय <BR/>भाव भक्ति समझयो नहींएक धरा में दो मता, मूरख चूकि गयो भक्ति कहाँ ते होय 537 538 <BR/><BR/>
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय स्त्री, आप कहावे दास <BR/>एक धरा में दो मतावो तो होगी शूकरी, भक्ति कहाँ ते होय वो रखवाला पास 538 539 <BR/><BR/>
घर में साकट स्त्रीआँखों देखा घी भला, आप कहावे दास न मुख मेला तेल <BR/>वो तो होगी शूकरीसाघु सो झगड़ा भला, वो रखवाला पास ना साकट सों मेल 539 540 <BR/><BR/>
आँखों देखा घी भलाकबीर दर्शन साधु का, न मुख मेला तेल बड़े भाग दरशाय <BR/>साघु सो झगड़ा भलाजो होवै सूली सजा, ना साकट सों मेल काँटे ई टरि जाय 540 541 <BR/><BR/>
कबीर दर्शन साधु कासोई दिन भला, बड़े भाग दरशाय जा दिन साधु मिलाय <BR/>जो होवै सूली सजाअंक भरे भारि भेटिये, काँटे ई टरि पाप शरीर जाय ॥ 541 542 <BR/><BR/>
कबीर सोई दिन भला, जा दिन दर्शन साधु मिलाय के, करत न कीजै कानि <BR/>अंक भरे भारि भेटियेज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, पाप शरीर जाय आलस मन से हानि 542 543 <BR/><BR/>
कबीर दर्शन साधु केकई बार नाहिं कर सके, करत न कीजै कानि दोय बखत करिलेय <BR/>ज्यों उद्य्म से लक्ष्मीकबीर साधु दरश ते, आलस मन से हानि काल दगा नहिं देय 543 544 <BR/><BR/>
कई बार नाहिं कर दूजे दिन नहिं करि सके, दोय बखत करिलेय तीजे दिन करू जाय <BR/>कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय मोक्ष मुक्ति फन पाय 544 545 <BR/><BR/>
दूजे दिन तीजे चौथे नहिं करि सकेकरे, तीजे दिन बार-बार करू जाय । <BR/>यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय समुझाय 545 546 <BR/><BR/>
तीजे चौथे दोय बखत नहिं करेकरि सके, दिन में करूँ इक बार-बार करू जाय <BR/>यामें विलंब न कीजियेकबीर साधु दरश ते, कहैं कबीर समुझाय उतरैं भव जल पार 546 547 <BR/><BR/>
दोय बखत बार-बार नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार पाख-पाख करिलेय <BR/>कबीर साधु दरश तेकहैं कबीरन सो भक्त जन, उतरैं भव जल पार जन्म सुफल करि लेय 547 548 <BR/><BR/>
बारपाख-बार पाख नहिं करि सकेसकै, पाख-पाख करिलेय मास मास करू जाय <BR/>यामें देर न लाइये, कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय कबीर समुदाय 548 549 <BR/><BR/>
पाखबरस-पाख नहिं बरस नाहिं करि सकै, मास मास करू जाय ताको लागे दोष <BR/>यामें देर कहै कबीर वा जीव सो, कबहु लाइये, कहैं कबीर समुदाय पावै योष 549 550 <BR/><BR/>
छठे मास नहिं करि सके, बरस-बरस नाहिं दिना करि सकै ताको लागे दोष लेय <BR/>कहै कहैं कबीर वा जीव सोभक्तजन, कबहु न पावै योष जमहिं चुनौती देय 550 551 <BR/><BR/>
छठे मास-मास नहिं करि सकेसकै, बरस दिना करि लेय उठे मास अलबत्त <BR/>कहैं कबीर सो भक्तजनयामें ढील न कीजिये, जमहिं चुनौती देय कहै कबीर अविगत्त 551 552 <BR/><BR/>
मासमात-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि <BR/>यामें ढील न कीजियेसाधु दरश को जब चलैं, कहै कबीर अविगत्त ये अटकावै आनि 552 553 <BR/><BR/>
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान <BR/>साधु दरश को जब चलैंकहैं कबीर कछु भेट धरूँ, ये अटकावै आनि अपने बित्त अनुमान 553 554 <BR/><BR/>
साधु चलत रो दीजियेइन अटकाया न रुके, कीजै अति सनमान साधु दरश को जाय <BR/>कहैं कहै कबीर कछु भेट धरूँसोई सन्तजन, अपने बित्त अनुमान मोक्ष मुक्ति फल पाय 554 555 <BR/><BR/>
इन अटकाया खाली साधु रुकेबिदा करूँ, साधु दरश को जाय सुन लीजै सब कोय <BR/>कहै कबीर सोई सन्तजनकछु भेंट धरूँ, मोक्ष मुक्ति फल पाय जो तेरे घर होय 555 556 <BR/><BR/>
खाली साधु न बिदा करूँसुनिये पार जो पाइया, सुन लीजै सब कोय छाजन भोजन आनि <BR/>कहै कबीर कछु भेंट धरूँसंतन को, जो तेरे घर होय देत न कीजै कानि 556 557 <BR/><BR/>
सुनिये पार जो पाइयाकबीर दरशन साधु के, छाजन भोजन आनि खाली हाथ न जाय <BR/>यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि बुझाय 557 558 <BR/><BR/>
कबीर दरशन साधु केटूका माही टूक दे, खाली हाथ न जाय चीर माहि सो चीर <BR/>यही सीख बुध लीजिएसाधु देत न सकुचिये, कहै यों कशि कहहिं कबीर बुझाय 558 559 <BR/><BR/>
टूका माही टूक देकबीर लौंग-इलायची, चीर माहि सो चीर दातुन, माटी पानि <BR/>साधु कहै कबीर सन्तन को, देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर कीजै कानि 559 560 <BR/><BR/>
कबीर लौंग-इलायचीसाधु आवत देखिकर, दातुन, माटी पानि हँसी हमारी देह <BR/>कहै कबीर सन्तन कोमाथा का ग्रह उतरा, देत न कीजै कानि नैनन बढ़ा सनेह 560 561 <BR/><BR/>
साधु आवत देखिकरशब्द समुद्र है, हँसी हमारी देह जामें रत्न भराय <BR/>माथा का ग्रह उतरामन्द भाग मट्टी भरे, नैनन बढ़ा सनेह कंकर हाथ लगाय 561 562 <BR/><BR/>
साधु शब्द समुद्र हैआया पाहुना, जामें रत्न भराय माँगे चार रतन <BR/>मन्द भाग मट्टी भरेधूनी पानी साथरा, कंकर हाथ लगाय सरधा सेती अन्न 562 563 <BR/><BR/>
साधु आया पाहुनाआवत देखिके, माँगे चार रतन मन में करै भरोर <BR/>धूनी पानी साथरासो तो होसी चूह्रा, सरधा सेती अन्न बसै गाँव की ओर 563 564 <BR/><BR/>
साधु आवत देखिकेमिलै यह सब हलै, मन में करै भरोर काल जाल जम चोट <BR/>सो तो होसी चूह्राशीश नवावत ढ़हि परै, बसै गाँव की ओर अघ पावन को पोट 564 565 <BR/><BR/>
साधु मिलै यह सब हलैबिरछ सतज्ञान फल, काल जाल जम चोट शीतल शब्द विचार <BR/>शीश नवावत ढ़हि परैजग में होते साधु नहिं, अघ पावन को पोट जर भरता संसार 565 566 <BR/><BR/>
साधु बिरछ सतज्ञान फलबड़े परमारथी, शीतल शब्द विचार जिनके अंग <BR/>जग में होते साधु नहिंतपन बुझावै ओर की, जर भरता संसार देदे अपनो रंग 566 567 <BR/><BR/>
आवत साधु बड़े परमारथीन हरखिया, शीतल जिनके अंग जात न दीया रोय <BR/>तपन बुझावै ओर कहै कबीर वा दास की, देदे अपनो रंग मुक्ति कहाँ से होय 567 568 <BR/><BR/>
आवत साधु न हरखियाछाजन भोजन प्रीति सो, जात न दीया रोय दीजै साधु बुलाय <BR/>कहै कबीर वा दास कीजीवन जस है जगन में, मुक्ति कहाँ से होय अन्त परम पद पाय 568 569 <BR/><BR/>
छाजन भोजन प्रीति सोसरवर तरवर सन्त जन, दीजै साधु बुलाय चौथा बरसे मेह <BR/>जीवन जस है जगन मेंपरमारथ के कारने, अन्त परम पद पाय चारों धारी देह 569 570 <BR/><BR/>
सरवर तरवर सन्त जनबिरछा कबहुँ न फल भखै, चौथा बरसे मेह नदी न अंचय नीर <BR/>परमारथ के कारने, चारों धारी देह साधु धरा शरीर 570 571 <BR/><BR/>
बिरछा कबहुँ न फल भखैसुख देवै दुख को हरे, नदी न अंचय नीर दूर करे अपराध <BR/>परमारथ के कारनेकहै कबीर वह कब मिले, साधु धरा शरीर परम सनेही साध 571 572 <BR/><BR/>
सुख देवै दुख को हरेसाधुन की झुपड़ी भली, दूर करे अपराध न साकट के गाँव <BR/>कहै कबीर वह कब मिलेचंदन की कुटकी भली, परम सनेही साध ना बूबल बनराव 572 573 <BR/><BR/>
साधुन की झुपड़ी भलीकह अकाश को फेर है, न साकट के गाँव कह धरती को तोल <BR/>चंदन कहा साध की कुटकी भलीजाति है, ना बूबल बनराव कह पारस का मोल 573 574 <BR/><BR/>
कह अकाश को फेर हैहयबर गयबर सधन धन, कह धरती को तोल छत्रपति की नारि <BR/>कहा साध की जाति हैतासु पटतरा न तुले, कह पारस का मोल हरिजन की परिहारिन 574 575 <BR/><BR/>
हयबर गयबर सधन धनक्यों नृपनारि निन्दिये, छत्रपति की नारि पनिहारी को मान <BR/>तासु पटतरा न तुलेवह माँग सँवारे पीववहित, हरिजन की परिहारिन नित वह सुमिरे राम 575 576 <BR/><BR/>
क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी जा सुख को मान मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप <BR/>वह माँग सँवारे पीववहितजो सुख सहजै पाईया, नित वह सुमिरे राम सन्तों संगति आप 576 577 <BR/><BR/>
जा सुख को मुनिवर रटैंसाधु सिद्ध बहु अन्तरा, सुर नर करैं विलाप साधु मता परचण्ड <BR/>जो सुख सहजै पाईयासिद्ध जु वारे आपको, सन्तों संगति आप साधु तारि नौ खण्ड 577 578 <BR/><BR/>
साधु सिद्ध बहु अन्तराकबीर शीतल जल नहीं, साधु मता परचण्ड हिम न शीतल होय <BR/>सिद्ध जु वारे आपकोकबीर शीतल सन्त जन, साधु तारि नौ खण्ड राम सनेही सोय 578 579 <BR/><BR/>
कबीर शीतल जल नहींआशा वासा सन्त का, हिम ब्रह्मा लखै शीतल होय वेद <BR/>कबीर शीतल सन्त जनषट दर्शन खटपट करै, राम सनेही सोय बिरला पावै भेद 579 580 <BR/><BR/>
आशा वासा सन्त काकोटि-कोटि तीरथ करै, ब्रह्मा लखै न वेद कोटि कोटि करु धाय <BR/>षट दर्शन खटपट करैजब लग साधु न सेवई, बिरला पावै भेद तब लग काचा काम 580 581 <BR/><BR/>
कोटि-कोटि तीरथ करैवेद थके, कोटि कोटि करु धाय ब्रह्मा थके, याके सेस महेस <BR/>जब लग साधु न सेवईगीता हूँ कि गत नहीं, तब लग काचा काम सन्त किया परवेस 581 582 <BR/><BR/>
वेद थकेसन्त मिले जानि बीछुरों, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस बिछुरों यह मम प्रान <BR/>गीता हूँ कि गत नहींशब्द सनेही ना मिले, सन्त किया परवेस प्राण देह में आन 582 583 <BR/><BR/>
सन्त मिले जानि बीछुरोंसाधु ऐसा चाहिए, बिछुरों यह मम प्रान दुखै दुखावै नाहिं <BR/>शब्द सनेही ना मिलेपान फूल छेड़े नहीं, प्राण देह में आन बसै बगीचा माहिं 583 584 <BR/><BR/>
साधु ऐसा चाहिएकहावन कठिन है, दुखै दुखावै नाहिं ज्यों खांड़े की धार <BR/>पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार 584 585 <BR/><BR/>
साधु कहावन कहावत कठिन है, ज्यों खांड़े की धार लम्बा पेड़ खजूर <BR/>डगमगाय चढ़े तो गिर पड़े निहचल उतरे पार चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर 585 586 <BR/><BR/>
साधु कहावत कठिन हैचाल जु चालई, लम्बा पेड़ खजूर साधु की चाल <BR/>चढ़े बिन साधन तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय 586 587 <BR/><BR/>
साधु चाल जु चालईसोई जानिये, चलै साधु की चाल । <BR/>बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल 587 588 <BR/><BR/>
साधु सोई जानियेभौरा जग कली, चलै साधु की चाल निशि दिन फिरै उदास <BR/>परमारथ राता रहैटुक-टुक तहाँ विलम्बिया, बोलै बचन रसाल जहँ शीतल शब्द निवास 588 589 <BR/><BR/>
साधु भौरा जग कलीसाधू जन सब में रमैं, निशि दिन फिरै उदास दुख न काहू देहि <BR/>टुक-टुक तहाँ विलम्बियाअपने मत गाड़ा रहै, जहँ शीतल शब्द निवास साधुन का मत येहि 589 590 <BR/><BR/>
साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि । <BR/>अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥ <BR/><BR/> साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट । <BR/>
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत । <BR/>कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ <BR/><BR/> साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ । <BR/>सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥ <BR/><BR/>
साधु तो हीरा भयासती औ सिं को, न फूटै धन खाय ज्यों लेघन त्यौं शोभ <BR/>सिंह वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ 594 593 <BR/><BR/>
साधू-साधू सबहीं बड़ेसाधु तो हीरा भया, अपनी-अपनी ठौर न फूटै धन खाय <BR/>शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय 595 594 <BR/><BR/>
सदा रहे सन्तोष मेंसाधू-साधू सबहीं बड़े, धरम आप दृढ़ धार अपनी-अपनी ठौर <BR/>आश एक गुरुदेव कीशब्द विवेकी पारखी, और चित्त विचार ते माथे के मौर 596 595 <BR/><BR/>
दुख-सुख एक समान हैसदा रहे सन्तोष में, हरष शोक नहिं व्याप धरम आप दृढ़ धार <BR/>उपकारी निहकामताआश एक गुरुदेव की, उपजै छोह न ताप और चित्त विचार 597 596 <BR/><BR/>
सदा कृपालु दु:ख परिहरनदुख-सुख एक समान है, बैर भाव हरष शोक नहिं दोय व्याप <BR/>छिमा ज्ञान सत भाखहीउपकारी निहकामता, सिंह रहित तु होय उपजै छोह न ताप 598 597 <BR/><BR/>
साधु ऐसा चाहिएसदा कृपालु दु:ख परिहरन, जाके ज्ञान विवेक बैर भाव नहिं दोय <BR/>बाहर मिलते सों मिलेंछिमा ज्ञान सत भाखही, अन्तर सबसों एक सिंह रहित तु होय 599 598 <BR/><BR/>
सावधान और शीलतासाधु ऐसा चाहिए, सदा प्रफुल्लित गात जाके ज्ञान विवेक <BR/>निर्विकार गम्भीर मतबाहर मिलते सों मिलें, धीरज दया बसात अन्तर सबसों एक 600 599 <BR/><BR/>
{{KKPageNavigationसावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात । |पीछे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ५ निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥ |आगे=[[कबीर दोहावली / पृष्ठ ७ |सारणी=दोहावली / कबीर}}अगला भाग >>]]
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