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कबीर दोहावली / पृष्ठ ६

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कबीर}}{{KKPageNavigation|पीछे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ५ |आगे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ७ |सारणी=दोहावली / कबीर}}{{KKCatDoha}}<poem>जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय । <BR/>कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥ <BR/><BR/>
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप । <BR/>हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥ <BR/><BR/>
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । <BR/>सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥ <BR/><BR/>
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय । <BR/>कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥ <BR/><BR/>
गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग । <BR/>कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥ <BR/><BR/>
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर । <BR/>नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥ <BR/><BR/>
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला । <BR/>गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥ <BR/><BR/>
॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध । <BR/>कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥ <BR/><BR/>
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय । <BR/>ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥ <BR/><BR/>
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक । <BR/>जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥ <BR/><BR/>
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय । <BR/>कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥ <BR/><BR/>
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय । <BR/>चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥ <BR/><BR/>
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि । <BR/>बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥ <BR/><BR/>
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय । <BR/>जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥ <BR/><BR/>
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल । <BR/>जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥ <BR/><BR/>
भिक्ति भक्ति के विषय मे में दोहे ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय । <BR/>माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय । <BR/>गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥ <BR/><BR/>
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात । <BR/>सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥ <BR/><BR/>
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं । <BR/>तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥ <BR/><BR/>
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह । <BR/>सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥ <BR/><BR/>
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह । <BR/>माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥ <BR/><BR/>
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार । <BR/>सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥ <BR/><BR/>
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय । <BR/>बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥ <BR/><BR/>
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज । <BR/>ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥ <BR/><BR/>
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार । <BR/>कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥ <BR/><BR/>
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग । <BR/>ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥ <BR/><BR/>
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार । <BR/>बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥ <BR/><BR/>
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय । <BR/>बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥ <BR/><BR/>
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय । <BR/>जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥ <BR/><BR/>
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय । <BR/>दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥ <BR/><BR/>
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय । <BR/>एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥ <BR/><BR/>
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ । <BR/>कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥ <BR/><BR/>
साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान । <BR/>ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥ <BR/><BR/>
टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि । <BR/>टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥ <BR/><BR/>
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है । <BR/>कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥ <BR/><BR/>
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार । <BR/>देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥ <BR/><BR/>
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो । <BR/>भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥ <BR/><BR/>
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय । <BR/>एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥ <BR/><BR/>
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास । <BR/>वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥ <BR/><BR/>
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल । <BR/>साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥ <BR/><BR/>
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय । <BR/>जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय । <BR/>अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥ <BR/><BR/>
कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि । <BR/>ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥ <BR/><BR/>
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय । <BR/>कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥ <BR/><BR/>
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय । <BR/>कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥ <BR/><BR/>
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय । <BR/>यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥ <BR/><BR/>
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार । <BR/>कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥ <BR/><BR/>
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय । <BR/>कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥ <BR/><BR/>
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय । <BR/>यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥ <BR/><BR/>
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष । <BR/>कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥ <BR/><BR/>
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय । <BR/>कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥ <BR/><BR/>
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त । <BR/>यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥ <BR/><BR/>
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि । <BR/>साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥ <BR/><BR/>
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान । <BR/>कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥ <BR/><BR/>
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय । <BR/>कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥ <BR/><BR/>
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय । <BR/>कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥ <BR/><BR/>
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि । <BR/>कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥ <BR/><BR/>
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय । <BR/>यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥ <BR/><BR/>
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर । <BR/>साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥ <BR/><BR/>
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि । <BR/>कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥ <BR/><BR/>
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह । <BR/>माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥ <BR/><BR/>
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय । <BR/>मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥ <BR/><BR/>
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन । <BR/>धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥ <BR/><BR/>
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर । <BR/>सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥ <BR/><BR/>
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट । <BR/>शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥ <BR/><BR/>
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार । <BR/>जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥ <BR/><BR/>
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग । <BR/>तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥ <BR/><BR/>
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय । <BR/>कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥ <BR/><BR/>
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय । <BR/>जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥ <BR/><BR/>
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह । <BR/>परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥ <BR/><BR/>
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर । <BR/>परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥ <BR/><BR/>
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध । <BR/>कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥ <BR/><BR/>
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव । <BR/>चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥ <BR/><BR/>
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल । <BR/>कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥ <BR/><BR/>
हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि । <BR/>तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥ <BR/><BR/>
क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान । <BR/>वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥ <BR/><BR/>
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप । <BR/>जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥ <BR/><BR/>
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड । <BR/>सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥ <BR/><BR/>
कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय । <BR/>कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥ 579 ॥ <BR/><BR/>
आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद । <BR/>षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥ <BR/><BR/>
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय । <BR/>जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥ <BR/><BR/>
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस । <BR/>गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥ <BR/><BR/>
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान । <BR/>शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥ <BR/><BR/>
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं । <BR/>पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥ <BR/><BR/>
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार । <BR/>डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥ <BR/><BR/>
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । <BR/>चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥ <BR/><BR/>
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल । <BR/>बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥ <BR/><BR/>
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल । <BR/>परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥ <BR/><BR/>
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास । <BR/>टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥ <BR/><BR/>
साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि । <BR/>अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥ <BR/><BR/>
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट । <BR/>
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत । <BR/>कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ <BR/><BR/>
साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ । <BR/>सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥ <BR/><BR/>
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय । <BR/>न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥ <BR/><BR/>
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर । <BR/>शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥ <BR/><BR/>
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार । <BR/>आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥ <BR/><BR/>
दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप । <BR/>उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥ <BR/><BR/>
सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय । <BR/>छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥ <BR/><BR/>
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक । <BR/>बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥ <BR/><BR/>
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात । <BR/>निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥ <BR[[कबीर दोहावली /पृष्ठ ७|अगला भाग ><BR/>]]