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"कबीर दोहावली / पृष्ठ ६" के अवतरणों में अंतर

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|सारणी=दोहावली / कबीर
 
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जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।
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कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥
  
जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय <BR/>
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गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।  
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय 501 <BR/><BR/>
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हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप 502 ॥  
  
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप <BR/>
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यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।  
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप 502 <BR/><BR/>
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सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान 503 ॥  
  
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान <BR/>
+
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय ।  
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान 503 <BR/><BR/>
+
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय 504 ॥  
  
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय <BR/>
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गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।  
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय 504 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग 505 ॥  
  
गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग <BR/>
+
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।  
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग 505 <BR/><BR/>
+
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर 506 ॥  
  
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर <BR/>
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कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।  
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर 506 <BR/><BR/>
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गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला 507 ॥  
  
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला । <BR/>
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गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥  
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 <BR/><BR/>
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॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
 
  
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शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध ।
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कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥
  
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध <BR/>
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हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।  
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध 508 <BR/><BR/>
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ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय 509 ॥  
  
हिरदे ज्ञान उपजै, मन परतीत न होय <BR/>
+
ऐसा कोई मिला, जासू कहूँ निसंक ।  
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय 509 <BR/><BR/>
+
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक 510 ॥  
  
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक <BR/>
+
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय ।  
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक 510 <BR/><BR/>
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कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय 511 ॥  
  
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय <BR/>
+
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।  
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय 511 <BR/><BR/>
+
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय 512 ॥  
  
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय <BR/>
+
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।  
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय 512 <BR/><BR/>
+
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि 513 ॥  
  
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि <BR/>
+
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय ।  
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि 513 <BR/><BR/>
+
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय 514 ॥  
  
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय <BR/>
+
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।  
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय 514 <BR/><BR/>
+
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल 515 ॥  
  
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल । <BR/>
+
भिक्ति के विषय मे दोहे ॥  
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल 515 <BR/><BR/>
+
  
॥ भिक्ति के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
 
  
 +
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।
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माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥
  
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय । <BR/>
+
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।  
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 <BR/><BR/>
+
गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥  
  
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय <BR/>
+
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।  
गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय 517 <BR/><BR/>
+
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात 518 ॥  
  
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात <BR/>
+
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।  
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात 518 <BR/><BR/>
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तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं 519 ॥  
  
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं <BR/>
+
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।  
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं 519 <BR/><BR/>
+
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह 520 ॥  
  
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह <BR/>
+
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।  
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह 520 <BR/><BR/>
+
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह 521 ॥  
  
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह <BR/>
+
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।  
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह 521 <BR/><BR/>
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सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार 522 ॥  
  
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार <BR/>
+
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।  
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार 522 <BR/><BR/>
+
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय 523 ॥  
  
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय <BR/>
+
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।  
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय 523 <BR/><BR/>
+
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज 524 ॥  
  
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज <BR/>
+
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।  
ऊसर बीज उगसी, बोवै दूना बीज 524 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ पावै पार 525 ॥  
  
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार <BR/>
+
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।  
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार 525 <BR/><BR/>
+
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग 526 ॥  
  
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग <BR/>
+
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।  
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग 526 <BR/><BR/>
+
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार 527 ॥  
  
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार <BR/>
+
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।  
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार 527 <BR/><BR/>
+
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय 528 ॥  
  
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय <BR/>
+
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।  
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय 528 <BR/><BR/>
+
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय 529 ॥  
  
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय <BR/>
+
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।  
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय 529 <BR/><BR/>
+
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय 530 ॥  
  
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय <BR/>
+
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।  
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय 530 <BR/><BR/>
+
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय 531 ॥  
  
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय <BR/>
+
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।  
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय 531 <BR/><BR/>
+
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ 532 ॥  
  
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ <BR/>
+
साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।  
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ 532 <BR/><BR/>
+
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान 533 ॥  
  
साकट संग बैठिये करन कुबेर समान <BR/>
+
टेक कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।  
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान 533 <BR/><BR/>
+
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि 534 ॥  
  
टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि <BR/>
+
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।  
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि 534 <BR/><BR/>
+
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥  
  
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है <BR/>
+
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार ।  
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक 535 <BR/><BR/>
+
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार 536 ॥  
  
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार <BR/>
+
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।  
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार 536 <BR/><BR/>
+
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो 537 ॥  
  
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो <BR/>
+
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।  
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो 537 <BR/><BR/>
+
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय 538 ॥  
  
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय <BR/>
+
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।  
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय 538 <BR/><BR/>
+
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास 539 ॥  
  
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास <BR/>
+
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।  
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास 539 <BR/><BR/>
+
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल 540 ॥  
  
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल <BR/>
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कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।  
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल 540 <BR/><BR/>
+
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय 541 ॥  
  
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय <BR/>
+
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।  
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 <BR/><BR/>
+
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥  
  
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय <BR/>
+
कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।  
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय 542 <BR/><BR/>
+
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि 543 ॥  
  
कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि <BR/>
+
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।  
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि 543 <BR/><BR/>
+
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय 544 ॥  
  
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय <BR/>
+
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।  
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय 544 <BR/><BR/>
+
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय 545 ॥  
  
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय । <BR/>
+
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।  
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय 545 <BR/><BR/>
+
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय 546 ॥  
  
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय <BR/>
+
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार ।  
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय 546 <BR/><BR/>
+
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार 547 ॥  
  
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार <BR/>
+
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।  
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार 547 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय 548 ॥  
  
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय <BR/>
+
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।  
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय 548 <BR/><BR/>
+
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय 549 ॥  
  
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय <BR/>
+
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।  
यामें देर लाइये, कहैं कबीर समुदाय 549 <BR/><BR/>
+
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु पावै योष 550 ॥  
  
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष <BR/>
+
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।  
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष 550 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय 551 ॥  
  
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय <BR/>
+
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।  
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय 551 <BR/><BR/>
+
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त 552 ॥  
  
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त <BR/>
+
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।  
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त 552 <BR/><BR/>
+
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि 553 ॥  
  
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि <BR/>
+
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।  
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि 553 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान 554 ॥  
  
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान <BR/>
+
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।  
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान 554 <BR/><BR/>
+
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय 555 ॥  
  
इन अटकाया रुके, साधु दरश को जाय <BR/>
+
खाली साधु बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।  
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय 555 <BR/><BR/>
+
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय 556 ॥  
  
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय <BR/>
+
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।  
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय 556 <BR/><BR/>
+
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि 557 ॥  
  
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि <BR/>
+
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।  
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि 557 <BR/><BR/>
+
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय 558 ॥  
  
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय <BR/>
+
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।  
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय 558 <BR/><BR/>
+
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥  
  
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर <BR/>
+
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।  
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर 559 <BR/><BR/>
+
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि 560 ॥  
  
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि <BR/>
+
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।  
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि 560 <BR/><BR/>
+
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह 561 ॥  
  
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह <BR/>
+
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।  
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह 561 <BR/><BR/>
+
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय 562 ॥  
  
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय <BR/>
+
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।  
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय 562 <BR/><BR/>
+
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न 563 ॥  
  
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन <BR/>
+
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।  
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न 563 <BR/><BR/>
+
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर 564 ॥  
  
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर <BR/>
+
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।  
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर 564 <BR/><BR/>
+
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट 565 ॥  
  
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट <BR/>
+
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।  
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट 565 <BR/><BR/>
+
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार 566 ॥  
  
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार <BR/>
+
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।  
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार 566 <BR/><BR/>
+
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग 567 ॥  
  
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग <BR/>
+
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।  
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग 567 <BR/><BR/>
+
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय 568 ॥  
  
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय <BR/>
+
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।  
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय 568 <BR/><BR/>
+
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय 569 ॥  
  
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय <BR/>
+
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।  
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय 569 <BR/><BR/>
+
परमारथ के कारने, चारों धारी देह 570 ॥  
  
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह <BR/>
+
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।  
परमारथ के कारने, चारों धारी देह 570 <BR/><BR/>
+
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर 571 ॥  
  
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर <BR/>
+
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।  
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर 571 <BR/><BR/>
+
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध 572 ॥  
  
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध <BR/>
+
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव ।  
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध 572 <BR/><BR/>
+
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव 573 ॥  
  
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव <BR/>
+
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल ।  
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव 573 <BR/><BR/>
+
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल 574 ॥  
  
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल <BR/>
+
हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि ।  
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल 574 <BR/><BR/>
+
तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन 575 ॥  
  
हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि <BR/>
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क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान ।  
तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन 575 <BR/><BR/>
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वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम 576 ॥  
  
क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान <BR/>
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जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप ।  
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम 576 <BR/><BR/>
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जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप 577 ॥  
  
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप <BR/>
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साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड ।  
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप 577 <BR/><BR/>
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सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड 578 ॥  
  
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड <BR/>
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कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय ।  
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कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय 579 ॥  
  
कबीर शीतल जल नहीं, हिम शीतल होय <BR/>
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आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै वेद ।  
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय 579 <BR/><BR/>
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षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद 580 ॥  
  
आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद <BR/>
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कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।  
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद 580 <BR/><BR/>
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जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम 581 ॥  
  
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय <BR/>
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वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।  
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गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस 582 ॥  
  
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस <BR/>
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सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।  
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस 582 <BR/><BR/>
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शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन 583 ॥  
  
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान <BR/>
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साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।  
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन 583 <BR/><BR/>
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पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं 584 ॥  
  
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं <BR/>
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साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।  
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डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार 585 ॥  
  
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साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।  
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चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर 586 ॥  
  
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साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।  
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बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय 587 ॥  
  
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साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।  
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परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल 588 ॥  
  
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साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।  
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टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास 589 ॥  
  
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साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।  
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अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि 590 ॥  
  
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साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।  
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माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591  
 
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591  
  
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत । <BR/>
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साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।  
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ <BR/><BR/>
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कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥  
 
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12:57, 6 अप्रैल 2013 का अवतरण

जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥

गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥

यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥

बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय ।
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥

गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥

गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥

कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥

॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥


शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥

हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥

ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक ।
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥

शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय ।
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥

स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥

गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥

सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय ।
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥

देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥

॥ भिक्ति के विषय मे दोहे ॥


कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥

कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।
गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥

जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥

चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥

हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥

झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥

कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥

कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥

पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥

कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥

साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥

शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥

कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥

साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥

साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥

कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥

संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥

साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥

टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥

साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥

निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार ।
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥

हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥

खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥

घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥

आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥

कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥

कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥

कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥

कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥

दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥

तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥

दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार ।
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥

बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥

पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥

बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥

छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥

मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥

मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥

साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥

इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥

खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥

सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥

कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥

टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥

कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥

साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥

साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥

साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥

साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥

साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥

साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥

साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥

आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥

छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥

सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥

बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥

सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥

साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव ।
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥

कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल ।
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥

हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि ।
तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥

क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान ।
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥

जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप ।
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥

साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड ।
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥

कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय ।
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥ 579 ॥

आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद ।
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥

कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥

वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥

सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥

साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥

साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥

साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥

साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥

साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥

साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥

साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥

साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591

साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥

साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥

साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥

साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥

सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥

दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥

सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥

साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥

सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥
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