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कब उठेगा शोर, किस दिन / अवनीश त्रिपाठी

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चुप्पियों के मरुस्थल में
बड़बड़ाती हैं हवाएँ
कब उठेगा शोर, किस दिन ?

अट्टहासों की नटी के
हाथ काली तख्तियाँ हैं
हर सड़क पर उलझनें हैं
दर्पणों में भ्रांतियाँ हैं
टेक घुटने गिड़गिड़ाती
संस्कारी वर्जनायें
कब उठेगा शोर, किस दिन ?

हर समय आखेट का भय
अग्निपंखी बस्तियों में
चोट खाये शब्द व्याकुल
हैं सुबह की सुर्खियों में
अवसरों की ताक में हैं
भीड़ की भौतिक दशायें
कब उठेगा शोर, किस दिन ?

कहकहों के क्रूर चेहरे
क्रोध में सारी दिशायें
रक्तरंजित हो चुकीं हैं
विश्ववन्दित सभ्यतायें,
शीतयुद्धों में झुलसती
जा रही संवेदनायें
कब उठेगा शोर,किस दिन ?

रात लम्बी है बहुत ही
और है गहरा अँधेरा
मौन बैठा है क्षितिज पर
ऊँघता सा फिर सवेरा,
साजिशों के पास गिरवी
अस्मिता की धारणाएँ
कब उठेगा शोर, किस दिन ?