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कब तक सहती मैं? / उर्मिल सत्यभूषण

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क्यों त्रिशंकु से लटकते
रहे तुम?
किया था प्यार तो
शर्म कैसी थी इज़हार में
क्यों लगती थी हार पौरुष
की इसमें?
नार से प्यार?
तौबा! तौबा!!
नार से रार ही था
तुम्हारा दर्शन।
पर कब तक सहती मैं
तुम्हारी मार?
मेरे वजूद का लहूलुहान
पक्षी कर बैठा विद्रोह-
उड़ने को तैयार कटे पंखों
से भी। लगाया न अनुलेप
आहत तन-मन पर
सिर्फ दी लताड़
कसमसाते जिस्मों को।
मसलते रहे बांहों के हार
और तार चाहतो के तोड़ते रहे
और कदम दर कदम
उतरते गये मौत की वादी में
न इस पर, न उस पार
जीवन और मृत्यु के बीच
झूलते रहे त्रिशंकु से
क्यों? क्यों? क्यों?