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कभी-कभार / श्रीकान्त जोशी

जो
उच्चारण की दहलीज़ लाँघ कर
बन जाते हैं कर्म
वे मंत्र होते हैं,
संजो लेते हैं शताब्दियों तक
घायल मनुजता का मर्म।
बिना वर्तुल हुए रेखाओं के
तुलता नहीं है सौन्दर्य-फलक पर
समूचा शून्य गूँजने लगता है
कुछ अनाम किरणों की झलक पर।
कभी-कभार लिखे शब्दों से
न लिखों में बड़ा बल होता है
जिस जगह ज़मीन चुकती है
वहाँ जल होता है।
बेवजह नहीं, सिर
शरीर के अवयवों से ऊपर बना
यह झुकता है, दर्द होता है
जैसे बन गया हो घुटना
भय भी हमारी संस्कृति है
कभी-कभी
आदमी बेहिसाब
आदमीयत ख़्वाब
बग़ैर चेहरे के घूमता है नक़ाब

आदमी आदमी रहे
ऐसा इंतज़ाम हो
पैरों में रास्ता हो
हाथों में काम हो।