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कभी-कभी / रणजीत

कभी-कभी डर-सा लगता है
इस पीले प्रेतों की बस्ती में रहते-रहते ही
प्रेत न मैं ख़ुद ही हो जाऊँ
उन सब ज़िन्दा इन्सानों की तरह जिन्होंने
पहले स्वर में -
मानवता की विजय-पताका फहराई थी
किन्तु जिन्हें फुसला-फुसला कर
चाँदी के इस चक्रव्यूह में लाकर
इन प्रेतों ने
आज प्रेत ही बना लिया है ।

यों तो अपने पर मुझको विश्वास बहुत है, लेकिन
आसपास की स्थितियों के प्रभाव को भी
झुठलाना मुश्किल है
ठीक है -
इन्सानियत के प्यार की यह वृत्ति कुछ हल्की नहीं है
कभी-कभी पर
नोटों के काग़ज भी कहीं अधिक भारी हो जाया करते हैं

मन के गहरे विश्वासों को
तन की भूख हिला देती है
रोटी की छोटी सी क़ीमत भी कभी-कभी
इन बड़े-बड़े आदर्शों को रेहन रख कर
मिट्टी में गर्व मिला देती है ।

यदि ऐसा हो कभी:
कि डस ले पूंजी का अजगर मुझको भी
प्रेतों के हाथों मैं भी बिक जाऊँ
मानवीय क्षमता, समता के गीत छोड़ कर
प्रेतों का ही यशोगान करने लग जाऊँ
तो ओ छलना से बचे हुए ज़िन्दा इन्सानो !
मुझको मेरे वे गीत सुनाना
जो मैंने कल प्रेतों को इन्सान बनाने को लिक्खे थे
प्रेतों में सोया ईमान जगाने को लिक्खे थे

एक और बिकते आदम पर
एक और बनती छाया पर
उन गीतों की शक्ति तौलना
हो सकता है
उनकी गर्म साँस फिर मेरे
मुर्दा मन में प्राण फूँक दे
किरणों की अंगुलियाँ उनकी
चाँदी की पर्तों में दबे पड़े
इन्सानी बीजों को अंकुर दे जाएँ
फिर से शायद
भटका साथी एक तुम्हारा राह पकड़ ले
और तुम्हारा परचम लेकर
लड़ने को प्रस्तुत हो जाए -

कभी-कभी डर-सा लगता है ।