भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पै भी / बृज नारायण चकबस्त

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:35, 30 दिसम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बृज नारायण चकबस्त |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पै भी
पर अब उरूज<ref>अभ्युदय</ref> वो इल्मो कमालो फ़न<ref>विद्या तथा गुण</ref> में नहीं ।

रगों में ख़ून वही दिल वही जिगर है वही
वही ज़बाँ है मगर वि असर सख़ुन में नहीं ।

वही है बज़्म वही शम्-अ है वही फ़ानूस
फ़िदाय बज़्म वो परवाने अंजुमन में नहीं ।

वही हवा वही कोयल वही पपीहा है
वही चमन है पर वो बाग़बाँ चमन में नहीं ।

ग़ुरूरों जहल ने हिन्दोस्ताँ को लूट लिया
बजुज़ निफ़ाक़<ref>द्वेष</ref> के अब ख़ाक भी वतन में नहीं ।

शब्दार्थ
<references/>