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कभी न सोचा था मैं ने उड़ान भरते हुए / फ़राग़ रोहवी

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कभी न सोचा था मैं ने उड़ान भरते हुए
कि रंज होगा ज़मीं पर मुझे उतरते हुए

ये शौक़-ए-ग़ोता-ज़नी तो नया नहीं फिर भी
उतर रहा हूँ मैं गहराइयों में डरते हुए

हवा के रहम-ओ-करम पर चराग़ रहने दो
कि डर रहा हूँ नए तजरबात करते हुए

न जाने कैसा समुंदर है इश्क़ का जिस में
किसी को देखा नहीं डूब के उभरते हुए

मैं उस घराने का चश्म ओ चराग़ हूँ जिस की
हयात गुज़री है ख़्वाबों में रंग भरते हुए

मैं सब से मिलता रहा हँस के इस तरह कि मुझे
किसी ने देखा नहीं टूटते बिखरते हुए

‘फ़राग़’ ऐसे भी इंसान मैं ने देखे हैं
जो सच की राह में पाए गए हैं मरते हुए