कभी भी कोई आशियाना कहाँ था
किसी से मेरा दोस्ताना कहाँ था
पी ली थी मैंने मगर होश में था
नशे में हूँ मैं जताना कहाँ था
चले भी तो तीर उसकी तरफ़ से
सधा पर उसका निशाना कहाँ था
झुकाई उसने न अपनी निगाहें
शराफ़त का अब ज़माना कहाँ था
इरादा था कह दूँ उसे बात अपनी
मगर ख़ूबसूरत बहाना कहाँ था