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कभी वो हाथ न आया हवाओं जैसा है / हकीम 'नासिर'

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कभी वो हाथ न आया हवाओं जैसा है
वो एक शख़्स जो सचमुच ख़ुदाओं जैसा है

हमारी शम-ए-तमन्ना भी जल के ख़ाक हुई
हमारे शोलों का आलम चिताओं जैसा है

वो बस गया है जो आ कर हमारी साँसों में
जभी तो लहजा हमारा दुआओं जैसा है

तुम्हारे बाद उजाले भी हो गए रूख़्सत
हमारे शहर का मंज़र भी गाँव जैसा है

वो एक शख़्स जो हम से है अजनबी अब तक
ख़ुलूस उस का मगर आश्नाओं जैसा है

हमारे ग़म में वो जुल्फें बिखर गईं ‘नासिर’
जभी तो आज का मौसम भी छाँव जैसा है