कभी सिर झुका के चले गए, कभी मुँह फिरा के चले गये / गुलाब खंडेलवाल
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कभी सर झुका के चले गए, कभी मुँह फिरा के चले गये
मेरा साथ कोई न दे सका, सभी आये, आ के चले गये
मुझे डूबने से उबार लें, कभी यह तो उनसे न हो सका
मेरी भावना के कगार पर, वे लहर उठा के चले गये
नहीँ एक ऐसे तुम्हीं यहाँ, जिसे प्यार मिल न सका कभी
कई लोग पहले भी आये थे, यही चोट खा के चले गये
जो गले में डोर-सी थी बँधी, उसे तोड़ तो न सका कोई
कई छटपटा के चले गये, कई मुस्कुरा के चले गये
मेरी ज़िन्दगी का निचोड़ था, कोई ऐसी-वैसी कथा न थी
वही ज़िन्दगी जिसे प्यार से कभी तुम सजा के चले गये
जो ह्रदय को प्यार का दुःख मिला, तो अधर को गीत की बाँसुरी
उसी बाँसुरी के सुरों पे हम, कोई धुन सजा के चले गये
वही पँखुरियाँ, वही बाँकपन, वही रंग-रूप की शोखियाँ
वो गुलाब और ही था मगर, जिसे तुम खिला के चले गये
उसे अपने मन के गरूर से, न सुना किसी ने तो क्या हुआ!
वो ग़ज़ल किसी से भी कम न थी, जिसे हम सुना के चले गये