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कभी हरीफ़ कभी हम-नवा हमीं ठहरे / फ़राग़ रोहवी

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कभी हरीफ़ कभी हम-नवा हमीं ठहरे
कि दुश्मनों के भी मुश्किल-कुशा हमीं ठहरे

किसी ने राह का पत्थर हमीं को ठहराया
ये और बात कि फिर आईना हमीं ठहरे

जो आज़माया गया शहर के फ़क़ीरों को
तो जाँ-निसार-ए-तारीक़-ए-अना हमीं ठहरे

हमीं ख़ुदा के सिपाही हमीं मुहाजिर भी
थे हक़-शनास तो फिर रहनुमा हमीं ठहरे

दिलों पे क़ौल-ओ-अमल के वो नक़्श छोड़े हैं
कि पेशवाओं के भी पेशवा हमीं ठहरे

‘फ़राग़’ रन में कभी हम ने मुँह नहीं मोड़ा
मक़ाम-ए-इश्क़ से भी आश्ना हमीं ठहरे