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कभी है अमृत, कभी ज़हर है, बदल-बदल के मैं पी रहा हूँ / विजय 'अरुण'

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कभी है अमृत, कभी ज़हर है, बदल-बदल के मैं पी रहा हूँ
मैं अपनी मर्ज़ी से जी रहा हूँ या तेरी मर्ज़ी से जी रहा हूँ।

दुखी रहा हूँ, सुखी रहा हूँ कभी धरा पर, कभी गगन पर
यह कैसा जीवन मुझे मिला है यह कैसा जीवन मैं जी रहा हूँ।

कभी जो दिन चैन से है बीता तो रात की नींद उड़ गई है
कभी जो रात को नींद आई तो दिन में हर पल दुखी रहा हूँ।

कभी जो फूलों की राह देखी तो चल पड़ा उस पै गीत गाता
मगर थे फूलों के साथ काँटे मैं जब भी ज़ख़्मों को-सी रहा हूँ।

 'अरुण' मगर यह भी सोचता हूँ कि चार दिन की जो ज़िन्दगी है
चलो अधिक न सही तो चार दिन में मैं एक दिन तो सुखी रहा हूँ।