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कमाई से इक पाई देना! / सरोज मिश्र

नेग न देना भैया मुझको,
न देना व्यौहार मुझे।
हीरे मोती सोना चाँदी,
न महंगे उपहार मुझे।
नेह भरे जब धागे बाँधूं
भैया तेरी कलाई पर,

जुग जुग साथ रहोगे मेरे, वचन मुझे ये भाई देना!
बहुत करे मन भैया तेरी कमाई से इक पाई देना!

तुम जिस आंगन के चंदन हो
कली वहीं ये भी मुस्काई!
खेलेकूदे साथ-साथ हम,
पढ़े साथ में करी लड़ाई!
जग बन्धन से बंधे थे बापू
मुझको किया पराया लेकिन,
जनक पुरी से पंचवटी तक
फिर भी कुल की रीति निभाई!

ममता छूटी पीहर छूटा,
छूटी गुड़िया सोनू माया!
बाबुल जबसे स्वर्ग सिधारे,
तुझमें देखी उनकी छाया!
आयें जब त्यौहार तीज तब
एक अरज तुमसे भईया!

बुलवा लेना पीहर चाहें, अगले रोज़ बिदाई देना!
अंक भींच कर मुझे विदा में, माथा चूम मिठाई देना!
बहुत करे मन भैया तेरी कमाई से एक पाई देना!

हिचकी तुम्हें सताए जिस दिन
मुझे कुशल की पाती लिखना!
गली मुहल्ले टोले भर की
खबरें आती जाती लिखना!
विलग सुमन हूँ मैं डाली से
लेकिन परिचय तुमसे ही है,
तो कुलदीपक मुझे नेह से,
भीगी अपनी बाती लिखना!

डोर हाँथ में सधी रहे तो,
नभ पर सीना ताने उड़तीं।
कटी पतंगे भाग भरोसे,
छतों छतों पर गिरती फिरतीं।
सुख दुःख की ऋतुयें तो वैसे
घर घर तक आनी जानी

विपदा पड़े बहन पर जिस दिन मेरे साथ दिखाई देना।
तब इतनी-सी भैया मुझको राखी की बँधवाई देना।
बहुत करे मन, भैया तेरी कमाई से एक पाई देना।