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कमाल की औरतें १९ / शैलजा पाठक

चाची के समृद्ध नैहर
जमींदारी ठाठ के सब कायल
एक जोड़ी बैल
एक गाय
एक बीघा जमीन पर
लिखा आई थी चाची अपना नाम

बड़कवा ƒघर की लड़की
वेद जी के बेटे से Žब्याही गई
सारी रात बजती रही शहनाई
कलाकारों को खुश करके भेजा बापू ने

असली जरी बनारसी की साड़ी में विदा की गई चाची
ससुराल में अपने नन्हें पैर का लाल छापा
कोहबर की गुदगुदी वाले खेल
औरतों का बार-बार उनके कमर में पड़ी
एक किलो चांदी की करधनी को हसरत से देखा जाना

हुलसती रहीं मन ही मन
गाना बजाना नाचना मजाक का अंत देर रात हुआ
तभी एक ओर अंत की शुरुआत हुई
जब फुसफुसाती आवाज़ में चाचा ने
अपना निर्णय ƒघर के आंगन में सुनाया
आपके कहने से Žब्याह कर लिए अब आप रखो दुलहिन
शहर की पढ़ाई करनी है हमें अभी जाना होगा
अब ई सब मोह माया में हम नहीं फंसने वाले

जाते कदमों की आहट से सब ओर सन्नाटा पसरा था
साखू सागौन की लकड़ी का पलंग बबूल के कांटे सा चुभा

अगली सुबह लाल आंख भरी मांग
लाल जोड़े की चाची ने ƒघर का आंगन लीपा
नैहर के बैलों को चारा डाली गाय के गले लग बिसूरती रही

फिर गोइठा वाले ƒघर से लकड़ी लवना बटोरती चाची
चूल्हे च€की डेहरी धान से नाता जोड़ती रही
उनके हाथों की चूडिय़ां आते-जाते
कितने बसंत तक कभी नहीं बजी

सावन सखियां झूला के दस्तक पर
चाची चिहुंक चिहुंक जाती
ई कौने गलती का सजा है...सब निरुत्तर।